कविता उत्तरायणी का त्यौहार। (Festival of Poetry Uttarayani.)

 कविता उत्तरायणी का त्यौहार। (Festival of Poetry Uttarayani.)

कविता उत्तरायणी का त्यौहार। (Festival of Poetry Uttarayani.)


अब के बरस जो आया उत्तरायणी का त्यौहार।

मिल कर कौवे सारे करने लगे करने लगे विचार।।

सयाने कौवे ने करने विचार फिर एक सभा बुलाई।

मिलकर सब कौवों ने शिकायत थी दर्ज कराई।।

घुघती का त्यौहार है  श्रीमान अब बस आनेवाला।

ताले पड़े घरों में घुघुते भला है कौन बनाने वाला।।

काले कौवा काले कह कर कौन हमें बुलायेगा।

बड़े,पूरी और घुघुतों से कौन हमें अब लुभायेगा।।

बोला एक कौवा तब हम भी पलायन करते हैं।

यहाँ ना सही परदेश में ही स्वाद घुघुतों का चखते हैं।

ठहरो सब तभी सयाने कौवे ने आवाज़ लगाई।।

जाने क्या सोच कर उसकी आँखें थी भर आई।।

बोला मिलेगा वहाँ सम्मान इस आशा में जाना बेकार।

पहाड़ो सा नहीं मनाते वहाँ उत्तरायणी का यह त्यौहार।।

दौड़ धूप में शहर की नयी पीढ़ी भूली सब पुरानी बातें।

घुघुते कौन बनायेगा जब पिज्जा बर्गर से कटती हैं रातें।।

कहते है पलायन , पलायन तो हम पंछी भी करते हैं।

याद मुल्क की ना बिसरे ,वापस फिर उड़ान  भरते हैं।।

उम्मीदों के सपनों में माना यहाँ पलायन भी जरुरी है।

पर अपनी जडों से दूरी बनाना भला ये कैसी मजबूरी है।।

इस बार चलो घुघुतों का त्यौहार हम कुछ यों मनाते है ।

घुघुते बना काले कौवा कह बिछड़ो को पास बुलाते है।।

           

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