मुनियों द्वारा की गयी शिव स्तुति | Shiva praised by sages
मुनियों द्वारा की गयी शिव स्तुति
ऋषय ऊचु:
श्लोक:
नमो दिग्वाससे नित्यं कृतान्ताय त्रिशूलिने। विकटाय करालाय करालवबदनाय च॥ १॥
अरूपाय सुरूपाय विश्वरूपाय ते नमः। कटडड्ठूटाय रुद्राय स्वाहाकाराय वै नमः॥ २॥
सर्वप्रणतदेहाय स्वयं च प्रणतात्मने। नित्यं नीलशिखण्डाय श्रीकण्ठाय नमो नमः॥ ३॥
नीलकण्ठाय देवाय चिताभस्माड्धारिणे। त्वं ब्रह्मा सर्वदेवानां रुद्राणां नीललोहितः॥ ४॥
ऋषिगण बोले: दिशाओं को वस्त्र रूप में धारण करने वाले, शाश्वत, प्रलय के कारण, त्रिशूलधारी, विकट रूपवाले, कराल (संसार रूपी वृक्ष के लिए कुठार स्वरूप) तथा भीषण वदन वाले शिव को नमस्कार है। बिना रूप वाले, सुंदर रूप वाले और विश्व रूप वाले आपको प्रणाम है। गजानन रूप, स्वाहा करने वाले यजमान रूप रुद्र को प्रणाम है।
सभी लोगों से नमस्कृत देह वाले, स्वयं विनीत आत्मा वाले, निरंतर नील जटाजूट धारण करने वाले, अपने शरीर में चिता की भस्म को धारण करने वाले, श्रीकण्ठ और नीलकण्ठ शिव को बार-बार प्रणाम है। हे प्रभो! आप सभी देवताओं में ब्रह्मा हैं तथा रुद्रों में नीललोहित हैं।
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लिंग पुराण : मुनियों द्वारा की गयी शिव स्तुति | Linga Purana: Shiva praised by sages
श्लोक:
आत्मा च सर्वभूतानां सांख्येः पुरुष उच्यते। पर्वतानां महामेरुनक्षत्राणां च चन्द्रमाः॥ ५॥
ऋषीणां च वसिष्ठस्त्वं देवानां वासवस्तथा। 3कारः सर्ववेदानां श्रेष्ठ साम च सामसु॥ ६॥
आरण्यानां पशूनां च सिंहस्त्वं परमेश्वरः। ग्राम्याणामृषभए्चासि भगवान् लोकपूजितः॥ ७॥
सर्वथा वर्तमानोऽपि यो यो भावो भविष्यति। त्वामेव तत्र पश्यामो ब्रह्मणा कथितं तथा॥ ८॥
आप समस्त भूतों की आत्मा हैं। सांख्यविद् आपको पुरुष कहते हैं। आप पर्वतों में महान मेरु पर्वत तथा नक्षत्रों में चंद्रमा हैं। ऋषियों में आप वसिष्ठ हैं तथा देवताओं में देवराज इंद्र हैं। सभी वेदों में सार रूप से आप ओंकार हैं एवं सभी गेय स्वरों में आप सामगान हैं। आप परमेश्वर वन्य पशुओं में सिंह हैं और ग्राम्य पशुओं में ऐश्वर्य संपन्न वृषभ हैं।
हे प्रभो! आप वैसा कीजिए कि आपका जो भी विद्यमान स्वरूप हो, उसमें हम ब्रह्मा द्वारा कथित आपके सर्वस्वरूप का दर्शन कर सकें।
श्लोक:
कामः क्रोधश्च लोभश्च मोहो दम्भ उपद्रवः। यानि चान्यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च॥ ९॥
दह्यन्ते प्राणिनस्ते तु त्वत्समुत्थेन वह्निना। अस्माकं दह्यमानानां त्राता भव सुरेश्वर॥ १०॥
त्वं च लोकहितार्थाय भूतानि परिषिञ्चसि। महेश्वर महाभाग प्रभो शुभनिरीक्षक॥ ११॥
आज्ञापय वयं नाथ कर्तारो वचनं तव। भूतकोटिसहस्त्रेषु रूपकोटिशतेषु च॥ १२॥
अन्तं गन्तुं न शक्ताः स्म देवदेव नमोऽस्तु ते॥ १३॥
हे परमेश्वर! आप प्रसन्न होइए। हम यह जानना चाहते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, विषाद तथा मद ये पाँचों विकार सभी को दग्ध क्यों करते हैं। हे देव! महासंहार उपस्थित होने पर शुद्ध चित्त वाले आप परमेश्वर ने ललाट पर हाथ घर्षित कर अग्नि उत्पन्न की थी। तब उसी अग्नि की ज्वालाओं से समस्त लोक सभी ओर से आच्छादित हो गए। इसीलिए ये काम, क्रोध, लोभ, मोह, दंभ आदि विक्षोभात्मक अग्नियाँ अग्नितुल्य ही हैं।
इस जगत में जो भी स्थावर-जंगम जीव एवं पदार्थ हैं, वे सब आप द्वारा उत्पादित अग्नि से दग्ध हो रहे हैं। अतएव, हे सुरेश्वर! उस अग्नि से दग्ध हो रहे हम सभी की आप रक्षा कीजिए। हे महेश्वर! हे महाभाग! हे प्रभो! हे शुभ निरीक्षक! आप लोक-कल्याण के लिए जीवों को अमृत रूपी जल से सींचते हैं। हे नाथ! आज्ञा दीजिए; हम लोग आपके वचनों का पालन करने के लिए तत्पर हैं। अनंत पदार्थों एवं उनके नाम-रूपों के मध्य आप व्याप्त हैं, आपका पार हम पा नहीं सके हैं। हे देवाधिदेव, आपको नमस्कार है।
समाप्त:
इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे ‘शिवस्तुतिवर्णनं’ नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः।
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