जमाना बदल रहा है पर पहाड कि हालत खराब होती जा रही है "पुरांणि पीढ़िक असज......."
यह कविता बदलते ज़माने के परती "ओ जमाना य कसि जै हाव चलि भाई आब् भैनू हैबे ठूल है गयीं साव और साई"
उत्तराखंड कून खन आब ज्वॉन हैगौ
योंका युवाका न्यौति यौलै परेशान हैगौ।
बस साल् में यक चक्कर जरूर घरैं लग्यै दिया। ,
मैंकें तुमरि नरै लागि रै।
दूध-भात खैबेर् भागी, नानतिन हुन्छी खूब हुस्यार
आब खांण भेगी मैगी-बर्गर, तबेत रूनी हरदम बीमार ।।
हूं राज्यपुष्प उत्तराखण्ड का
मैं नहीं प्रियतम कमल पुष्प,
जमाना वह कुछ और था जब सब मिल जुल कर रहा करते
होता कोई भी बार त्योहार उसे सब एक साथ मनाते,,
अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं
जिन पहाड़ों, झरनों, धारों के पानी से मैं दूर आया हूं,
उनकी छावों से आज भी कहां ,
अलग हो पाया हूं।।
अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं।।
क्या इसीलिए उत्तराखण्ड बनाया ??
अलग राज्य का सपना सजाया,
तब जाकर उत्तराखंड पाया,
रोज़गार का सपना सजाया
लेकिन पलायन बढ़ता आया ,
उत्तराखण्ड का दर्द
आओ आज आपको भी
पहाड़ घुमाकर लाता हूं,
रामनगर से चलता हूं और,
हौले से गाड़ी का मुख पहाड़ों को घुमाता हूं।।
ऐसा नहीं कि मुझको शहर नहीं भाता
खुश हूँ, मुझमें से मेरा पहाड़ी गांव नहीं जाता।
सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
फुलन छै के बुरूंश! जंगल जस जलि जां।
"(कुमाऊँनी हास्य कविता ) 😜😜 ""आजकल चेली ब्वारी चलौनी फेसबुक
हरा पिसी लूँण सिल में पिसती हरी खुशयाणी, चम्मच भर जीरा, हरे धनिया की पत्तियाँ, लहसन,
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