गढ़वाल राइफल्स ने पेशावर में अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर / Garhwal Rifles refuse to fire on their countrymen in Peshawar
गढ़वाल राइफल्स ने पेशावर में अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर
23 अप्रैल 1930. पेशावर के सदर बाजार के काबुली गेट पर पठानों की भीड़ लगी हुई थी. सबके चेहरों पर एक शिकन तो थी, लेकिन कोई खास ख़ौफ़ नहीं दिखता था. पेशावर के आसमान में सूरज अभी चढ़ ही रहा था, लेकिन माहौल में तनाव और कुछ अनिष्ट हो जाने का डर पसरा हुआ था. चौराहे के दूसरी ओर अभी-अभी एक गोरे सार्जेंट पर किसी ने पेट्रोल की बोतल दे मारी थी. वो सार्जेंट जब जलने लगा तो वहां तैनात अंग्रेज़ अधिकारी कैप्टन रिकेट ने सिपाहियों को उसे बचाने का आदेश दिया. लेकिन कोई भी भारतीय सिपाही आगे नहीं बढ़ा. उल्टा सभी सिपाहियों ने मुँह फेर लिया. सार्जेंट जब जल कर मर गया, तो ग़ुस्से से तमतमाए कैप्टन रिकेट ने चार जवानों को धक्का मारते हुए आदेश दिया, ‘जाओ उसे ले आओ.’ सिपाही मौके पर पहुंचे और गोरे सार्जेंट को खींच लाए.
इस घटना के बाद पेशावर के पठान ये भांप चुके थे कि अंग्रेजी हुकूमत इस हत्या का बदला ज़रूर लेगी. पठानों की ये आशंका अगले कुछ घंटों में ही सही भी साबित होने वाली थी. अंग्रेजों ने रॉयल गढ़वाल राइफ़ल्ज़ की पूरी ब्रिगेड को पेशावर के चप्पे-चप्पे में तैनात कर दिया. मंसूबे ये थे कि जब गढ़वाली सिपाही निहत्थे पठानों पर गोली चलाएंगे तो इससे हुकूमत को दो फायदे होंगे. पहला ये कि पठानों का जनसंहार हुकूमत के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को ख़ौफ़ज़दा कर देगा और दूसरा ये कि हिंदू सिपाहियों द्वारा पठानों पर चली गोलियां दो धर्मों के बीच बन रही नफरत की खाई को और भी चौड़ा कर देगी.
अंग्रेज अधिकारियों ने गढ़वाल रेजिमेंट की प्लाटून चार को पठानों के नरसंहार के लिये चुना. इस प्लाटून की कमान एक ऐसे गढ़वाली सूबेदार के हाथ में थी, जो कुछ मिनट बाद ही पूरी ब्रितानिया सल्तनत की जमीन हिलाने वाला था, जो पूरी दुनिया के क्रांतिकारियों के लिए एक आदर्श बनने वाला था, जिसका नाम स्वतंत्रता आंदोलन में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज होने वाला था और जो कुछ साल बाद आज़ाद भारत की एक गुलाम रियासत में पहली सशस्त्र क्रांति का नेतृत्व करने वाला था. ये नाम था, चंद्र सिंह भंडारी, जिसे इतिहास ने चंद्र सिंह गढ़वाली के रूप में याद रखा.
गढ़वाल राइफ़ल्ज़ ने पेशावर में अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था. पूरी दुनिया में इस घटना का जबरदस्त असर हुआ. जो साहस और जज़्बा चंद्र सिंह गढ़वाली ने पेशावर में दिखाया था, उस साहस की झलकियां उनमें बचपन से ही दिखने लगी थी. अपनी बलशाली देह और हिम्मत के चलते उन्हें छोटी उम्र में ही गांव के लोग एक भड़ की तरह पहचानने लगे थे. उत्तराखंड के पहाड़ों में भड़ उस व्यक्ति को कहते हैं, जो असामान्य रूप से बलशाली होता है.
ऐसे ही एक भड़ का जन्म 25 दिसंबर 1891 को चमोली जिले में चांद पुर गढ़ी के नज़दीक रोणौसेरा गांव में काश्तकार जाथली सिंह के घर पर हुआ. जाथली सिंह अनपढ़ थे. उनका सामाजिक दायरा भी ऐसा नहीं था कि वो शिक्षा की जरूरत कभी महसूस कर पाते. इसका ख़ामियाज़ा चंद्र सिंह को भुगतना पड़ा. तेज दिमाग का होने के बावजूद भी उन्हें शुरूआती दिनों में स्कूल नहीं भेजा गया. लेकिन जब चंद्र सिंह की पैरवी करने खुद स्कूल के मास्टर जाथली सिंह के घर आए तो उन्होंने फिर रोका भी नहीं और इस तरह चंद्र सिंह की स्कूली पढ़ाई शुरू हुई. बताते हैं कि चंद्र सिंह भले ही पढ़ाई में अव्वल थे, लेकिन दुस्साहस उनमें भड़ों वाला ही था.
एक क़िस्सा खुद चंद्र सिंह ने कभी महान घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन को सुनाया था. राहुल अपनी किताब में इस बात का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि चंद्र सिंह उस समय सिर्फ़ 13 साल के थे जब गढ़वाल का कोई डिप्टी कमिश्नर अपनी पत्नी के साथ देडोविनसर के जंगलों में शिकार खेलने पहुंचा. पूरा गांव उसकी खिदमत में जुट गया. जितना हो सकता था आवभगत की गई. इस दौरे में आए डिप्टी कमिश्नर और उनकी पत्नी गांव के पास ही मौजूद डाक बंगले में ठहरे हुए थे. अगले दिन अंग्रेज साहब शिकार के लिए जंगल चले गए तो अंग्रेज मेम बंगले में ही अकेले रह गई. इस दौरान एक ऐसी घटना हुई, जिससे पूरे गांव की शामत आने वाली थी. हुआ यूं कि गांव का एक मानसिक विक्षिप्त व्यक्ति नग्न अवस्था में बंगले के सामने से गुजर गया. जिस वक्त वो वहां से निकल रहा था उस वक्त अंग्रेज मेम बंगले के बाहर ही टहल रही थी. उन्होंने उस नग्न व्यक्ति को देखा तो इसे अपना अपमान माना.
डिप्टी कमिश्नर शिकार करके वापस लौटे तो उनकी पत्नी ने उन्हें इस बारे में बताया. गांव के सभी पुरूषों को अंग्रेज मेम के सामने शिनाख्त परेड के लिए तलब कर लिया गया. लेकिन आरोपी की पहचान न सकी. लिहाजा, पूरे गांव को ही पौड़ी में डिप्टी कमिश्नर की अदालत में हाजिर होने का हुक्म सुना दिया गया. गांव वाले पौड़ी पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि साहब की अदालत अब जोशीमठ से आगे नीति घाटी में लगेगी. बेचारे गांव वाले खाने की चीजें पीठ पर लादे कई दिनों के पैदल सफर के बाद नीति पहुंचे. वहां एक नया फरमान सुना दिया गया कि इस मुकदमे की सुनवाई तो वही मेम करेगी और वो इस वक्त पौड़ी में हैं. ज्यादातर गांव वालों की जेब खाली हो चुकी थी. लेकिन मरते क्या न करते. कुछ लोगों को वापस गांव रवाना किया गया, चंदा जुटा कर पैसा मंगवाया गया और एक बार फिर से एक लंबा सफर तय करते हुए ये लोग दोबारा पौड़ी पहुंचे. बेहद घबराए हुए कि अंग्रेज मेम न जाने क्या सजा सुना दे.
रोणौसेरा गांव के इन लोगों के बीच गौरी दत्त नाम का एक व्यक्ति अपने जादू टोने के लिए मशहूर था. उसने इस समस्या का समाधान बताते हुए चूल्हे, ओखल और चक्की की मिट्टी के साथ कुछ अन्य चीजें मिलाई और एक पुड़िया में इन्हें बांधकर एलान कर दिया कि अगर मंत्र चढ़ी इस पुड़िया की राख अंग्रेज अधिकारी के सिर पर उड़ेल दी जाए तो उसका दिमाग बदल जायेगा और सभी लोग सजा से बच निकलेंगे. अब संकट ये था कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन. जब कोई भी इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो 13 साल के चंद्र सिंह ने आगे आ कर ये जिम्मेदारी ली.
सुनवाई का दिन आया तो डिप्टी कमिश्नर के आवास पर अदालत बैठी जिसमें वो और उनकी पत्नी दोनों, बतौर जज शामिल हुए. अपराधी के तौर पर पूरा गांव मौजूद था लिहाज़ा अदालत में काफी भीड़ थी. इसी भीड़ के बीच से निकलकर चंद्र सिंह ने मौक़ा देखते ही वो राख की पुड़िया दोनों जजों के सिर पर झाड़ दी. न तो जजों को और न ही वहाँ खड़े चपरासियों को इस बात भी भनक लगी. इत्तिफ़ाक़न हुआ भी ये कि डिप्टी कमिश्नर और उनकी पत्नी ने गांव वालों को पांच रुपए के मामूली जुर्माने की सजा सुनाते हुए छोड़ दिया. ये सुनते ही गांव वालों ने चंद्र सिंह को अपने कंधे पर उठा लिया. अंग्रेज अधिकारी और उसकी पत्नी ये देख असमंजस में डूब गए. उन्हें समझ ही नहीं आया कि जब फैसला उन्होंने सुनाया तो जय जयकार भी उन्हीं की होनी चाहिए थी लेकिन गांव वाले इस 13 साल के बच्चे को क्यों धन्यवाद कह रहे हैं. उस अंग्रेज परिवार के लिए ताउम्र ये बात एक रहस्य ही रही. चंद्र सिंह के जीवन के ऐसे ही कई क़िस्सों का जिक्र राहुल सांकृत्यायन की लिखी किताब ‘वीर चंद्र सिंह गढ़वाली’ में मिलता है.
बहरहाल, इस घटना के कुछ साल बाद यूं हुआ कि चंद्र सिंह वो घर से भाग कर लैंसडाउन पहुंचे और रॉयल गढ़वाल में भर्ती हो गए. ये वो समय था जब प्रथम विश्व युद्ध अपने चरम पर था. अपने लालच के चलते क़ब्ज़ाए गए कई देशों को बचाने के लिए अंग्रेजों ने गढ़वालियों को भी सेना में भर्ती करना शुरू किया. गोरखाओं की तरह ही अंग्रेज़ गढ़वालियों को भी मार्शल ब्रीड मानते थे. लिहाजा, उन्होंने ज्यादा से ज्यादा गढ़वालियों को फौज में भर्ती किया और उन्हें प्राथमिक प्रशिक्षण देकर सीधे फ्रांस के मोर्चे पर झोंक दिया.
पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंट रही थी. दूसरे देशों की जमीन और संसाधनों पर क़ब्ज़े के लिए करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा था. युद्ध के एक धड़े में इंग्लैंड भी था और क्योंकि भारत उसका गुलाम देश था, तो लाजमी है कि उसके गुलाम सैनिकों को उसके लालच की क़ीमत चुकानी थी. यही क़ीमत चुकाने के लिए गढ़वाल राइफ़ल्ज़ को भी फ्रांस के मोर्चे पर भेजा जाना तय हुआ. इस युद्ध में जाने वाले सैनिकों के जीवित वापस लौटने की उम्मीद कम ही होती थी. लिहाज़ा उन्हें जाने से पहले कुछ छुट्टियाँ दी जाती थी ताकि वो अपने परिवार से मिल सकें और ऐसे मिल सकें जैसे ये उनकी आख़िरी मुलाक़ात हो. फ़्रांस के मोर्चे पर निकलने से पहले चंद्र सिंह को भी 15 दिन की छुट्टी मिली. सैनिक वर्दी पहने जब वो अपने गांव पहुंचे तो पहली बार अपनी सात महीने की बेटी से मिले और उसे देखते ही ऐसे पिघल गए कि फूट फूट कर रोने लगे. वो एक ऐसे मोर्चे पर निकल रहे थे कि अपनी बेटी से उनकी ये पहली मुलाक़ात, आख़िरी भी हो सकती थी.
15 दिन अपने परिवार के साथ रहने के बाद चंद्र सिंह वापस अपनी पलटन में लैंसडाउन लौटे. यहां से एक महीने बाद उनकी पलटन फ़्रांस के लिए रवाना हुई. लैंसडाउन से कोटद्वार रेलवे स्टेशन तक ये पलटन पैदल पहुंची, कोटद्वार से बंबई ट्रेन से और 1 अगस्त 1914 के दिन कोकनाडा जहाज में सवार हो गई. भूमध्य सागर में एक लंबा सफर करते हुए 14 अगस्त को ये लोग फ्रांस के मारसेई बंदरगाह पहुंचे और फिर जर्मनों के खिलाफ इन गढ़वाली सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय दिया. चंद्र सिंह फ्रांस के उसी मोर्चे पर लड़ रहे थे, जिसमें दो महीने पहले ही टिहरी जिले के गबर सिंह नेगी और चमोली जिले के दरबान सिंह लड़े थे जिन्हें आगे चलकर विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था.
कई महीनों तक फ्रांस के मोर्चे पर लड़ने के बाद चंद्र सिंह को इराक़ और मध्य पूर्व के कई अन्य मोर्चों पर भेजा गया. वो जब भारत वापस लौटे तो कई देशों की यात्रा कर चुके थे. उनके अनुभवों का दायरा इसलिए भी ज़्यादा विस्तार पा चुका था क्योंकि इसी बीच चंद्र सिंह को किताबों का भी चस्का लग चुका था. वो जिन्हें पढ़ रहे थे उनमें रूस की क्रांति के नायक समाजवादी नेता लेनिन भी शामिल थे. लेनिन की सोच और समाजवाद ने चंद्र सिंह को काफी प्रभावित किया था और भारत लौटने तक वो ये समझ चुके थे कि वो जिस युद्ध में वो लड़े और उनके सैकड़ों साथी शहीद हुए, वो महज एक लालच का युद्ध था, जिसमें उनके देश के नजाने कितने लोगों को बली का बकरा बनाया गया था.
ये वो दौर भी था जब भारत में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था. ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के प्रतिरोध का अनोखा तरीक़ा जहां दुनिया भर में लोगों का ध्यान खींच रहा था, वहीं देश की सरहदों में भी यह प्रतिरोध की नई ऊर्जा का संचार कर रहा था. भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम में अफ़गानिस्तान की सीमा से लगे इलाक़े में एक और गांधी उभर रहे थे जिनका नाम था अब्दुल गफ़्फार ख़ान.
गफ़्फ़ार ख़ान के नेतृत्व में पठानों ने अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ सत्याग्रह की शुरुआत और वो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को और मज़बूती दे रहे थे. सीमांत गॉंधी यानी अब्दुल गफ़्फार ख़ान से प्रेरित कई पठान, गांधी जी के समर्थन में एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए जमा हुए थे. अंग्रेज़ी हुक़ूमत को ये बर्दाश्त नहीं हुआ. वो किसी भी क़ीमत पर पठानों के इस आंदोलन को कुचल देना चाहती थी.
पेशावर में आंदोलन कर रहे पठानों को चारों तरफ से घेर लेने के बाद कैप्टन रिक्केट ने घोषणा की, ‘तुम लोगों को ये आख़िरी चेतावनी दी जा रही है. अगर इसके बाद भी तुमने ये सभा ख़त्म नहीं की तो गोलियों से भून दिए जाओगे.’ अंग्रेज़ी कप्तान रिक्केट की इस धमकी का भी जब पठानों पर कोई असर नहीं हुआ तो उसने चीखते हुए गढ़वाली सैनिकों को आदेश दे दिया, ‘गढ़वालीज ‘थ्री राउंड फ़ायर!’
गढ़वाली सैनिक इस आदेश की तामील करते, लेकिन उससे पहले ही कैप्टन रिक्केट के ठीक बाईं ओर खड़े सूबेदार चंद्र सिंह भंडारी गरजते हुए बोले, ‘गढ़वाली सीज़ फ़ायर. गढ़वाली गोली मत चलाना.’ इतना सुनना था कि सभी गढ़वाली सैनिकों ने अपनी बंदूक़ें नीचे कर ली और निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से इनकार कर दिया.
इस बग़ावती क़दम के लिए जब कोर्ट मार्शल का दौर चला और गढ़वालियों से उनकी नाफ़रमानी की वजह पूछी गई तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया, ‘सेना का काम दुश्मनों से लड़ना है, अपने ही देश के नागरिकों पर गोली चलाना नहीं.’
गढ़वाली जवानों के इस अभूतपूर्व क़दम ने जहां ब्रितानिया हुकूमत को अंदर तक हिला दिया, वहीं इस पेशावर कांड ने सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों को एक नई उम्मीद से भर दिया.
इस घटना के बाद चंद्र सिंह गढ़वाली समेत पूरी आठ सौ गढ़वालियों की पलटन से हथियार वापस ले लिए गए. अंग्रेजों ने इन सभी को पेशावर से हटाना जरूरी समझा और रात के अंधेरे में ही इन्हें ट्रेन में चढ़ा दिया गया. जिस वक्त ये गढ़वाली सैनिक ट्रेन में चढ़ रहे थे, उसी वक्त वहां पर एबटाबाद छावनी से चली गोरखा राइफल के जवानों से भरी एक ट्रेन आकर रूकी. गढ़वालियों को समझ आ गया था पठानों पर गोलियां चलने के जिस काम से उन्होंने इनकार कर दिया था, उसके लिए अब गोरखा सैनिकों को बुलाया गया है. इसकी भनक लगते ही चंद्र सिंह गढ़वाली ने जोर-जोर से आहवान करते हुए कहा, ‘गोरखा भाइयों. हम सब भाई-भाई हैं. अंग्रेज हमसे गोलियां चलवाकर हमारे ही देशवासियों को मरवाना चाहते हैं. तुम ऐसा मत करना.’ चंद्र सिंह के साथ ही तमाम गढ़वाली सैनिकों ने जब ये बात दोहराई तो पूरा रेलवे स्टेशन गूंज उठा.
अंग्रेज़ सिपाही वहां पहुंचे और गढ़वाली सैनिकों को गोरखाओं से दूर किया गया. लेकिन पेशावर की जिन बैरकों में गढ़वाली पलटन रहती थी, उन्हें छोड़ते वक्त भी गढ़वाली सिपाहियों ने दीवारों पर कोयलों से हिंदी और रोमन में पेशावर कांड की पूरी कहानी लिख दी थी. साथ ही कसम लिखी थी कि जो भी हिंदू या मुसलमान पलटन यहां आए, वो निहत्थे पठानों पर गोली न चलाए. इस रणनीति का जबरदस्त असर हुआ. गोरखा सैनिक सोच में पड़ गए और शक के दायरे में आने से अंग्रेजों ने उन्हें भी पेशावर से वापस भेज दिया.
चंद्र सिंह के नेतृत्व में एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम गढ़वाल राइफ़ल्ज़ उठा चुकी थी. कोर्ट मार्शल शुरू हुआ तो चंद्र सिंह समेत 16 अन्य आरोपियों का मुकदमा बैरिस्टर मुकुंदी लाल ने लड़ा. पहले ये तय था कि इन सभी को अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बगावत करने की सजा बतौर फांसी दी जायेगी. लेकिन कोर्ट ने इन सभी को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की.
चंद्र सिंह गढ़वाली के जीवन में फौज का अध्याय अब खत्म हो चुका था, लेकिन इसके साथ ही अब उनका जीवन राजनीतिक, सामाजिक और आंदोलनकारी के रूप में तरमीम होने वाला था. एक ऐसा जीवन जिसमें महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे बड़े नेताओं की शागिर्दी लिखी थी. वहीं दूसरी ओर अपने ही लोगों द्वारा उन्हें वो तमाम दुख भी मिलने वाले थे, जिसके हक़दार वो क़तई नहीं थे.
चंद्र सिंह को हुई आजीवन कारावास की सजा की शुरुआत एबटाबाद की जेल से हुई जहां वो छह साल रहे. इसके बाद दो साल बरेली जेल में और फिर चार साल देश की अलग-अलग जेलों में. जेल में सजा काटने के दौरान उनके विचारों में भी परिवर्तन की प्रक्रिया भी सतत जारी रही. इसमें सबसे बड़ा पड़ाव तब आया जब इलाहबाद की नैनी जेल उनकी मुलाक़ात शिव वर्मा, जयदेव कपूर, डा गया प्रसाद, शम्भू प्रसाद, विजय कुमार और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से हुई. इन लोगों की संगत में आकर चंद्र सिंह अब पूरी तरह से साम्यवादी हो गए.
सरकार को इस संगत का पता चला तो उन्हें 10 नवंबर 1939 के दिन देहरादून जेल में शिफ़्ट कर दिया गया. कुछ समय बाद जब उन्हें लखनऊ जेल भेजा गया तो उनकी मुलाकात राजनैतिक कैदी पंडित जवाहर लाल नेहरू से हुई. दोनों लगभग 42 दिन एक दूसरे के अगल बगल रहे. चंद्र सिंह को पंडित नेहरू प्यार से बड़े भाई कहा करते थे. ये ही नाम बाद में उनका प्रसिद्ध भी हुआ.
जेल से छूटने के बाद कई साल चंद्र सिंह ने पंडित नेहरू, गोविंद बल्लभ पंत और महात्मा गांधी के सानिध्य में काम किया. वो कई बार इन बड़े नेताओं की बातों से असहमत होते हुए देश के लिये क्रांतिकारी रास्ते को जरूरी बताते थे. इसका नुक़सान ये हुआ कि उन्हें कई अहम राजनीतिक समितियों से भी अलग-थलग कर दिया गया.
अंग्रेजों ने उन्हें जेल से तो छोड़ दिया था लेकिन उनके पौड़ी जाने पर प्रतिबंध था. ये प्रतिबंध तभी हटा जब देश आजाद हुआ. उसके बाद वो पौड़ी में ही जनता के मुददे उठाने लगे. लेकिन इसी बीच एक और अहम घटना हुई जिसके चलते वो फिर से पूरे देश के सामने एक बड़े क्रांतिकारी के रूप में सामने आए. ये घटना थी आजाद भारत में टिहरी नाम की एक रियासत में सशस्त्र क्रांति की अगुवाई करना.
राहुल सांकृत्यायन अपनी किताब ‘वीर चंद्र सिंह गढ़वाली’ में लिखते हैं, ‘श्रीनगर में अलकनंदा के दूसरी ओर कीर्तिनगर से टिहरी रियासत की सीमा शुरू होती थी. यहां टिहरी के राजा के खिलाफ आंदोलन कर रही प्रजा परिषद के कुछ नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. इससे जनता में भारी गुस्सा था. इसकी सूचना जब कामरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी को मिली तो वे तुरंत मौके पर पहुंचे. सकलानी ने पहुंचते ही भोंपू पर बोलना शुरू किया और फिर सभा की शुरुआत हुई. इसके कुछ ही समय बाद कीर्तिनगर की कचहरी पर अधिकार कर लिया गया और कस्बे में जनता की सरकार स्थापित होने की घोषणा कर दी गई. राजा के अधिकारियों को जनता ने बंधक बना लिया. टिहरी के राजा नरेंद्र शाह उस वक्त टिहरी में अपने महल में थे. उन्हें इसकी सूचना मिली तो उन्होंने एसडीओ और पुलिस अधीक्षक को भारी पुलिस बल के साथ मौके पर रवाना किया. लेकिन जनता अब क्रांति का मोर्चा संभाल चुकी थी. तमाम सिपाही बंधक बना लिए गए थे. एसडीओ और पुलिस अधीक्षक ने ये नजारा देखा तो वे जंगल की ओर भागे. नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी उनके पीछे भागे तो एसडीओ ने दोनों पर गोली चला दी. दोनों क्रांतिकारियों की वहीं शहादत हो गई.’
नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत की खबर सुनकर जनता मायूस होने लगी. लेकिन क्रांति दिशाहीन न हो, इसके लिये पेशावर कांड के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली तुरंत पौड़ी से कीर्तिनगर पहुंचे. उन्होंने एक भोंपू अपने हाथ में लिया और जनता से बोले, ‘मैं चंद्र सिंह गढ़वाली हूं. नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत हमारी अंतिम शहादत हैं. गढ़वाल में तेरह सौ साल का ये सामंती गढ़ अब इन शहादतों के सामने टिक नहीं पाएगा.’
चंद्र सिंह गढ़वाली आहवान कर ही रहे थे कि वहां मौजूद पुलिस के सभी सिपाहियों ने अपने हथियार झुका लिए और इस जन-क्रांति में शामिल हो गए. तय किया गया कि दोनों शहीदों के शवों को एसडीओ की गाड़ी में रख कर टिहरी की तरफ़ कूच किया जाए. क्रांतिकारियों का ये क़ाफ़िला देवप्रयाग होते हुए 15 जनवरी को टिहरी पहुंचा. गांव-क़स्बे-बाजार जहां-जहां से भी ये यात्रा गुजरी, पुलिस के सिपाही अपने हथियार डालते गए और जनता घरों से निकल कर इस जुलूस का हिस्सा बनती चली गई. क्या बुजुर्ग, क्या नौजवान, क्या महिलायें और क्या बच्चे. सभी टिहरी की तरफ बढ़ने लगे. 15 जनवरी को क़ाफ़िला टिहरी पहुंचा. अब तक इस क़ाफ़िले में हथियारबंद सुरक्षाकर्मी भी शामिल हो चुके थे. ये वही हथियारबंद सुरक्षाकर्मी थे, जो कभी गढ़वाल राइफल के योद्धा थे और बाद में आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए थे. इन्हें पता चला कि उनका नेता चंद्र सिंह गढ़वाली इस क्रांति का नेतृत्व कर रहा है तो वो सभी अपने हथियार लेकर एक सुरक्षा प्लाटून के रूप में क्रांति के भागीदार हो गए थे.
टिहरी में एक सफल क्रांति हुई और रियासत को आज़ाद करवाते हुए उसका भारत संघ में विलय करवाया गया. इसके बाद चंद्र सिंह पौड़ी लौट आए लेकिन यहां उनके साथ एक ऐसी घटना हुई, जिससे वो अंदर तक टूट गए. उन्हें आजाद भारत की पुलिस ने गिरफतार कर लिया और बरेली जेल भेज दिया गया. चंद्र सिंह गढ़वाली ये भी नहीं जानते थे कि उन्हें किस आरोप में गिरफ़्तार किया गया है. उन्होंने खुद पर लगी धाराओं के बारे में उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा. उस समय उत्तर प्रदेश सरकार में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत हुआ करते थे. वे पहले से ही चंद्र सिंह से परिचित थे. डेरा इस्माइल खां जेल में जब चंद्र सिंह ने कैदियों की मांग को लेकर भूख हड़ताल की थी तो गोविंद बल्लभ पंत ने ही जूस पिलाकर उनकी हड़ताल तुड़वाई थी. ऐसे में, चंद्र सिंह बरेली जेल में आश्चर्य में थे कि उन्हें आखिर क्यों जेल में डाल दिया गया है, वो भी तब जब भारत आजाद हो चुका है. जेल में रहते हुए जब उन्हें एक हफ़्ता बीत गया राज्य के गृह सचिव का पत्र उन्हें मिला. उसमें जो लिखा था, वह पढ़कर चंद्र सिंह गढ़वाली के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस पत्र में लिखा था कि ‘यूपी मेन्टेनेन्स आफ पब्लिक आर्डर एक्ट 47 की धारा पांच के तहत तुम चंद्र सिंह, बेटा जाथली सिंह, मौजा अकरोड़ा, जिला गढ़वाल को इत्तिला दी जाती है कि तुम्हें नजरबंद रखने की वजह है कि तुम कम्युनिस्ट पार्टी के जोरदार कार्यकर्ता हो. दूसरा, कि गढ़वाल राइफल की पेशावर में हुई गदर के सजायाफता हो. तीसरा, कितुम लोगों को भड़काते रहते हो.’ ये पत्र पढ़कर चंद्र सिंह का दिल बैठ गया और उनकी आंखें भर आई. उन्होंने जेल की अपनी कोठरी में दो पल के लिए सोचा कि इस देश की आज़ादी के लिए मैंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया, एक लंबा जीवन जेल में काटा, वो देश जब आज़ाद हुआ तो उन्हें ये सम्मान दिया जा रहा है.
चंद्र सिंह गढ़वाली को जेल में नजरबंद रखने की जानकारी जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को हुई तो उन्होंने बड़ा अफसोस जताया. हालांकि उन्हें भी ये बात तब पता चली जब लंदन के बड़े अखबार डेली वर्कर ने चंद्र सिंह के जेल जाने की खबर को बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित किया. उसके बाद भारत के अन्य अखबारों में भी जब यूपी सरकार की जमकर आलोचना हुई तो नेहरू और गोविंद बल्लभ पंत के दखल के बाद उन्हें रिहा किया गया.
चंद्र सिंह गढ़वाली का शेष जीवन भी बहुत बड़ी आर्थिक तंगी में गुजरा. उनके परिवार की आर्थिक हालत इस कदर खराब हो चुकी थे कि वो अपने बच्चों की पढ़ाई की फीस भी नहीं दे पाते थे. बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें 15 रूपये मासिक पेंशन देने की घोषणा की. 74 साल की उम्र में ये पेंशन की रकम जले पर नमक छिड़कने जैसा था. इसलिये उन्होंने कभी ये पेंशन स्वीकार नहीं की. साल 1957 में चंद्र सिंह गढ़वाली ने कम्युनिस्ट पार्टी के सिंबल पर चुनाव भी लड़ा लेकिन वो जीत नहीं सके. एक अक्टूबर 1979 के दिन लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया. उनकी मौत के बाद भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया और उत्तराखंड सरकार में कुछ योजनाएँ और कुछ संस्थाएँ आज भी उनके नाम से चलाई जा रही हैं.
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