Kumaoni Holi(कुमाऊँनी होली)

Kumaoni Holi (कुमाऊँनी होली)

होली गायन कुमाऊँनी होली

कुमाऊंनी होली


चंद्र बदनी खोलों द्वार तिहारे मन मोहन ठाडे है, द्वार होली खेलण को (राग काफी)
कैसी करत बरजोरी कान्हा मोरी बैंया मरोरी, सगरि चुनर मोर रंग भिगोरी और कपोवन रोर, देखा सखि मोरी यूं गत कीन्हीं खेलत खेलत होरी (राग भैरवी)
आज अलबेली चली छमा छमा चली, वो तो अपने पिया को मनाने चली

कुमाऊँनी होली

उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार एक अलग तरह से मनाया जाता है, जिसे कुमाऊँनी होली कहते हैं। कुमाऊँनी होली का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। यह कुमाऊँनी लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है, क्योंकि यह केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का ही नहीं, बल्कि पहाड़ी सर्दियों के अंत का और नए बुआई के मौसम की शुरुआत का भी प्रतीक है, जो इस उत्तर भारतीय कृषि समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है।
होली का त्यौहार कुमाऊँ में बसंत पंचमी के दिन शुरू हो जाता है। कुमाऊँनी होली के तीन प्रारूप हैं; बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली। इस होली में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता, वरन बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बसंत पंचमी के दिन से ही होल्यार प्रत्येक शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, और यह उत्सव लगभग २ महीनों तक चलता है।

Kumaoni Holi (कुमाऊँनी होली) उत्पत्ति 

कुमाऊँनी होली की उत्पत्ति, विशेष रूप से बैठकी होली की संगीत परंपरा की शुरुआत तो १५वीं शताब्दी में चम्पावत के चन्द राजाओं के महल में, और इसके आस-पास स्थित काली-कुमाऊँ, सुई और गुमदेश क्षेत्रों में मानी जाती है। बाद में चन्द राजवंश के प्रसार के साथ ही यह सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र तक फैली। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में तो इस त्यौहार पर होली गाने के लिए दूर दूर से गायक आते थे। कुमाऊनी होली के बारे में कहते हैं कि ,सन 1870 से नियमित वार्षिक उत्सव के रूप में मनाई रही हैं। उससे पहले ये होलियां एक नियमित बैठक के रूप में गायी जाती थी।

बैठकी होली Kumaoni Holi (कुमाऊँनी होली)

गीत बैठकी

बैठकी होली पारम्परिक रूप से कुमाऊँ के बड़े नगरों में (मुख्यतः अल्मोड़ा और नैनीताल में) ही मनाई जाती रही है। बैठकी होली बसंत पंचमी के दिन से शुरू हो जाती है, और इस में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ सुनने को मिलती हैं। ये बैठकें आशीर्वाद के साथ संपूर्ण होती हैं जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी..। या ऐसी होली खेले जनाब अली...जैसी ठुमरियाँ गाई जाती हैं। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठकी होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों के बारे में गहराई से अध्ययन किया है, और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू का असर भी माना है।

खड़ी होली Kumaoni Holi (कुमाऊँनी होली)

खड़ी होली बैठकी होली के कुछ दिनों बाद शुरू होती है। इसका प्रसार कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। खड़ी होली में गाँव के लोग नुकीली टोपी, कुरता और चूड़ीदार पायजामा पहन कर एक जगह एकत्रित होकर होली गीत गाते हैं, और साथ साथ ही ढोल-दमाऊ तथा हुड़के की धुनों पर नाचते भी हैं। खड़ी होली के गीत, बैठकी के मुकाबले शास्त्रीय गीतों पर कम ही आधारित होते हैं, तथा पूर्णतः कुमाऊँनी भाषा में होते हैं। होली गाने वाले लोग, जिन्हें होल्यार कहते हैं, बारी बारी गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के घर जाकर होली गाते हैं, और उसकी समृद्धि की कामना करते हैं।

महिला होली Kumaoni Holi (कुमाऊँनी होली)

महिला होली में प्रत्येक शाम बैठकी होली जैसी ही बैठकें लगती हैं, परन्तु इनमें केवल महिलाएं ही भाग लेती हैं। इसके गीत भी प्रमुखतः महिलाओं पर ही आधारित होते हैं।

अनुष्ठानKumaoni Holi (कुमाऊँनी होली)

चीर बन्धन तथा चीर दहन

कुमाऊनी होली में चीर बंधन का विशेष महत्त्व है। चीर को हिनाकश्यप की बहिन होलिका का प्रतीक माना जाता है। चीर कपड़ो की करतन को एक लकड़ी में जोड़ कर बनाया जाता है। कई जगह कुमाऊं के राज ध्वज निशाण का प्रयोग किया जाता है। एकादशी के दिन कुमाऊं में खड़ी होली की शुरुवात होती है। उसी दिन चीर की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। उसके बाद इसे पूरी होलियों में मजबूत हाथों में सौपा जाता है। क्योंकि कुमाऊँ की होलियों में चीर हरण की परम्परा होती है। इसके अनुसार यदि कोई दूसरे गांव का व्यक्ति होली की चीर में से एक टुकड़ा तोड़ कर नदी पार कर लेता है तो उस गांव की होली बंद हो जाती है। होलिका दहन के दिन इसका होलिका दहन के रूप में दहन किया जाता है। इसके दहन दौरान कुमाऊनी अंतिम संस्कार नियमों का पालन किया जाता है। कुमाऊँ के कई हिस्सों में होलिका दहन के दिन इसपर लगे कपडे के टुकड़ो को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चीर के टुकड़ों को घर में रखने से घर की बुरी शक्तियों से होती है।

छरड़ी

छरड़ी (धुलेंडी) के दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं। ऐतिहासिक तौर पर इस क्षेत्र में छरड़ से होली मनाई जाती थी, जिस कारण इसे छरड़ी कहा जाता था। छरड़ बनाने के लिए टेसू के फूलों को धूप में सुखाकर पानी में घोला जाता था, जिससे नारंगी-लाल रंग का घोल बनता था, जो छरड़ कहलाता था।

शृंगार व दर्शन का उल्लास

गढ़वाल में जब होल्यार किसी गांव में प्रवेश करते हैं तो गाते हुए नृत्य करते हैं, 'खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दरसन दीज्यो माई अंबे, झुलसी रहो जी। तीलू को तेल कपास की बाती, जगमग जोत जले दिन-राती, झुलसी रहो जी।' इष्ट देव व ग्राम देवता की पूजा के बाद होल्यार गोलाकार में नाचते-गाते हैं। यह अत्यंत जोशीला नृत्य गीत है, जिसमें उल्लास के साथ शृंगार का भी समावेश दिखाई देता है। ऐसा ही नृत्य-गीतेय शैली का एक भजन गीत है, जिसमें उल्लास के साथ मां भवानी की स्तुति की जाती है। 
यथा, 'हर हर पीपल पात, जय देवी आदि भवानी, कहां तेरो जनम निवास, जय देवी आदि भवानी।' शृंगार व दर्शन प्रधान यह गीत भी होली में प्रसिद्ध है, 'चंपा-चमेली के नौ-दस फूला, पार ने गुंथी हार शिव के गले में बिराजे।' शृंगार व उत्साह से भरे इस गीत में होल्यार ब्रज की होली का दृश्य साकार करते हैं। यथा-'मत मारो मोहनलाला पिचकारी, काहे को तेरो रंग बनो है, काहे की तेरी पिचकारी, मत मरो मोहन पिचकारी।' जब होल्यारों की टोली होली खेल चुकी होती है, तब आशीर्वाद वाला यह नृत्य-गीत गाया जाता है, 'हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष।'

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