भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो, भांगे की चटनी
वो सना हुआ नींबू, वो नौले का पानी।
वो आमा के खेतों में चूपके से जाना
वो आड़ू चुराना और फिर भाग आना
वो जोश्ज्यू के घर में अंगूर खाना
वो दाड़िम के दाने से चटनी बनाना
भूलाये नही भूल सकता ‘तरूण’ मैं
वो मासूम सा बचपन और उसकी कहानी।
वो पीतल के गिलास में चाय सुड़काना
वो डूबके, वो कापा और रसभात खाना
वो होली की गुजिया, वो भांग की पकौड़ी
पत्ते में लिपटी वो मीठी सिंगौड़ी
छूटा वो सब पीछे अब यादें बची हैं
ना है अब वो बचपन ना उसकी निशानी।
वो काला सा कौवा और उसको बुलाना
वो डमरू, वो दाड़िम वो तलवार को खाना
फूलदेई में सबके घरों में जाकर
घरों की देली को फूलों से सजाना
बेतरतीब से खुद के कपड़े थे रहते
भीगने को जाते जब बरसता था पानी।
होली में एक घर में चीर को लगाना
वो गुब्बारे, हुलियार और होली का गाना
वो चितई का मंदिर और मोष्टमानो का मेला
ना थी कोई चिंता, ना ही झमेला
ना दुनिया का गम था, ना रिश्तों का बंधन
बड़ी खुबसूरत थी वो जिंदगानी।
हिसालू, काफल और किलमोडी खाना
दिवाली में फूलों की माला बनाना
वो क्रिकेट का खेला जब हों खेत बंजर
बो भुट्टों की फुटबाल, कागज का खंजर
अब है झिझक कुछ करने ना देती
गया अब वो बचपन और ढलती जवानी।
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो…
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