ब्रिटिश कालीन भू-प्रबन्धन, वन प्रबन्ध, पुलिस व्यवस्था

ब्रिटिश कालीन भू-प्रबन्धन

आदि पुरूष मनु ने राजा अथवा शासक को राज्य प्रबन्धन हेतु कर लेने का अधिकार प्रदान किया है। हिन्दु राजाओं की राजस्व व्यवस्था मनु के आदर्शों के अनुरूप ही संचालित होती थी। उत्तराखण्ड के प्राचीन राजवंशों ने भी इसका अनुपालन किया किन्तु अंग्रेजों ने इसे बदल दिया। राजस्व सम्बन्धी उनके नियम रबड़ की तरह लचीले होते थे। बंदोबस्त की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं थी एवं प्रत्येक बंदोबस्त के पश्चात् कर की दर बढ़ाना सरकार की नीति रही। इस पर्वतीय क्षेत्र में स्थानीय जनता को दो तरह से बंदोबस्त की मार पड़ी। उन्हें जमीन के साथ-साथ वन बंदोबस्त का त्रास भी झेलना पड़ा। सामान्यत बंदोबस्त से तात्पर्य जमीन से बाबत राज्य व प्रजा के मध्य जो लिखा-पढ़ी होती है, से है। ब्रिटिशकाल में इस क्षेत्र में खसरा पैमाइश की व्यवस्था शुरू हुई। जमीन के नक्शे बनाए गए, जिनमें खेतों के नंबर डाले जाते थे। खसरों के हिस्सेदार, खायकर, व सिरतानों के नाम खेतों के नम्बर सहित दर्ज होते थे। 
ब्रिटिश कालीन भू-प्रबन्धन, वन प्रबन्ध, पुलिस व्यवस्था  


इस क्षेत्र की जमीन को चार भागों में बाटाँ गया था-
1. तलाऊँ
2. दोयम
3. कटील
4. अब्वल

वैकेट महोदय ने राजस्व निर्धारण का तरीका निर्धारित किया। उनका बंदोबस्त सन अस्सी के बंदोबस्त के नाम से प्रसिद्ध है यद्यपि यह सन् 1823 ई० में (सम्वत् 1880) में लागू हुआ था। इसके अनुसार तलाऊँ भूमि के तीन गुने, अब्बल भूमि के डेढ़ गुने पर, दोयम के बराबर और कटील भूमि आधे पर मालगुजारी की रकम तय की जाती थी। गाँव के प्रधान मालगुजारी वसूल कर पटवारी को देता था जो उसे सरकारी खजाने में जमा करता था।
मालगुजारी की दर सामान्यतः 2.5 से 3.5 तक प्रति बीसी होती थी। मालगुजारी वसूलने वालों को 5 रूपये सैकड़ा दस्तूर मिलता था। रामजे महोदय की विशेष कृपा के कारण-नैनीताल के महरा गाँव के थोकदारों को 10 रूपये सैकड़ा दस्तूर मिलता था। बंदोबस्त की सम्पूर्ण कार्यवाही प्रान्तीय गजट में छपती थी। 1815 से 1833 तक ट्रेल महोदय ने ही सात बंदोबस्त पूरे कर डाले थे। बैकेट का आठवाँ बंदोबस्त 20 वर्षों के लिए किया गया था। यह गढ़वाल-कुमाऊँ का संयुक्त अन्तिम बंदोबस्त था।
पूर्व के कुमाऊँ शासक सीधे-सीधे नृपति थे और उनके अधिकार सीमाबद्ध थे। राजधानी के निकट की कुछ जमीन राजपरिवार के भरण-पोषण को रखी जाती थी जिसमें राजा के निजी खर्च से जुताई एवं बुवाई की जाती थी। इस तथ्य का उल्लेख स्वयं ट्रेल महोदय ने भी किया है। तात्पर्य यह है कि पुराने हिन्दु राजा स्वयं को जमीन का स्वामी नहीं केवल संरक्षक मानते थे। किन्तु अंग्रेजो ने इस नीति को परिवर्तित कर दिया। उन्होने कहा कि सब जमीन की मालिक सरकार है। इस नीति के अनुसार गाँव के अंदर की बेनाप भूमि, घट, गाड़, जंगल, बंजर नदी आदि सब ही भूमि सरकार की मान ली गई। गाँव के लोग एक प्रकार से खायकर हो गए। इसका तात्पर्य है कि कृषक जमीन से खाए, कमाए और सरकार को नियमित कर दे।
आगरा टिनेन्सी अधिनियम संयुक्त प्रान्त में लागू हुआ किन्तु कुमाऊँ पर नहीं लागू किया गया। यहाँ की पद्धति स्टौवल महोदय ने बनाई थी जो पुरानी हो चुकी थी। सरकार ने नई नीति बनाने की घोषणा की थी किन्तु नीति बनाई नहीं गई।

ब्रिटिशकाल में वन प्रबन्ध

ब्रिटिशकाल में वन प्रबन्धन की ओर भी ध्यान दिया गया यद्यपि इसका वास्तविक उद्देश्य 1917 ई0 में स्टॉइफ महोदय, जो उस समय जंगलात बंदोबस्त अधिकारी थे कि रिपोर्ट से होता है जिसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि "कुमाऊँ का यह जंगलात बंदोबस्त कुमाऊँ के जंगलों के उत्पादन एवं रक्षा किसी योग्य एजेन्सी द्वारा क्रयविक्रय करने निमित्त है। इस प्रान्त में जंगल ही एक सम्पति है जो लाभदायक है जिसकी आमदनी से प्रान्त और साम्राज्य के कोष को लाभ पहुँच सकता है। यहाँ पर जंगलात बंदोबस्त ब्रिटिश लाभ के उद्देश्य से ही किया गया। स्थानीय भावनाओं के एक किनारे रखा गया।" चंदकाल में वापी, कूप, तड़ाग, देवालय, वृक्ष आदि लोकसम्पति मानी जाती थी जिन पर सम्पूर्ण जनता का अधिकार था। गोरखों ने काठबाँस तथा कत्थे पर कर लगाया, बाकी शेष जंगल पर सबका समान अधिकार था। किन्तु अंग्रेजो ने वन प्रबन्धंन सम्पतिशास्त्र के अनुसार किया। जंगलात विभाग बनाने का पहला ख्याल ट्रेल महोदय ने 1826 में दिया। उन्हें भाबर क्षेत्र में थापलों से साल कटाई पर रोक लगाई। 1855-61 ई0 के मध्य रेल के स्लीपरों के लिए अन्धाधुंध वृक्षो का दोहन हआ। 1861 ई० में रामजे ने जंगलात बंदोबस्त किया। उन्होने विशेषकर तराई के जंगल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया। रिजर्व क्षेत्र बनाए जाने से पूर्व अल्मोड़ा में 4540 वर्गमील जिला जंगल के अधीन था। उत्तराखण्ड में वन प्रबन्धन विकास मुख्यतः तीन चरणों में हुआ माना जा सकता है।
1. प्रथम चरण, 1815-1878 ई० तक
2. द्वितीय चरण, 1878-1893 ई० तक
3. तृतीय चरण, 1893ई0 से लेकर वर्तमान तक जारी।

वर्ष 1858 ई0 के उपरान्त मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेन्सी में जंगलो की रक्षा होने लगी। वर्ष 1865 से जंगल रक्षित किए जाने लगे। जंगलात की रक्षा हेतु कानून बना। कुमाऊँ में स्याही देवी, बिन्सर, सागर आदि जंगलो में फॉरेस्ट गार्ड रखे गये। 1893 ई0 में वनों पर एक सभा का आयोजन नैनीताल में किया गया। 1868 ई० में संयुक्त प्रान्त में मेजर  फरसन पहले कर्जवेटर नियुक्त हुए। 1875 ई0 में 1700 वर्गमील वन क्षेत्र जंगलात के अधीन हुआ।

कुमाऊँ में जंगलात अफसर की नियुक्ति की गई। 1882 ई० में जंगलात महकमा प्रान्तीय हुआ और 1893 ई० में वन  रक्षित किए गए। 

प्रथम चरण में हुए जंगलात प्रबन्धन से प्रजा को कष्ट न हुआ। ट्रेल साहब ने काठबाँस तथा कत्थे का ठेका भाबर में दिया जो 1858 तक जारी रहा। 1858 से 1868 ई० रामजे जंगलात अफसर भी रहे। उन्होंने वन प्रबन्ध में विशेष रूचि दिखाई, 1868 में भावर के वन संरक्षित एवं 1877 में सुरक्षित कर दिए गए। ये सभी अब जंगलात के अधीन हो गए। वर्ष 1873 में रानीखेत, 1875 में बलढौटी एवं 1879 ई0 में नैनीताल के जंगल भी सुरक्षित वन घोषित हो गए। 1878 से 1893 का काल कुमाऊँ जंगलात का द्वितीय चरण कहा जा सकता है। इस काल में कुछ वन लोहे की कम्पनी और कुछ चाय बागानों की स्थापना के लिए दिए गए। इस चरण से स्थानीय जनता को भारी कष्ट आरम्भ हुए। उनके पुस्तैनी अधिकार छीन लिए गए। अधिकांश वन क्षेत्र को पहले संरक्षित एवं बाद में सुरक्षित घोषित कर जंगलात के अधीन कर दिया गया।

वर्ष 1893 के उपरान्त प्रबन्धन का तृतीय चरण आरम्भ होता है। 1893 में तीन मूर्तियों सरजॉन हिवेटी, जॉन कैम्बल और सर पी० कल्टरबक ने अपने प्रभाव से नैनीताल से एक राजाज्ञा निकलवाई कि नाप जमीन के अलावा शेष बेनाप, ऊसर, बरफानी, नदी, तालाब, चट्टान, गाड-गधेरे, जंगल, नुजूल आदि जमीने, सब सरकारी हैं। प्रजा का उन पर कोई हक नहीं है। इसी बीच जंगलो को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया। 'अ' श्रेणी के जंगल पूर्णतः सुरक्षित, जिनमें प्रजा को कोई हक नही दिया गया। 'ब' श्रेणी के संरक्षित जंगलों में प्रजा को थोड़े से अधिकार दिए गए जबकि 'स' श्रेणी के खुले जंगल थे जो ग्राम के नजदीक होते थे। वर्ष 1894 ई० में देवदार, चीड़ कैल, साल, सीसम, तुन, खैर आदि वृक्ष सुरक्षित घोषित किए गए। इनको नाप भूमि में भी बिना अनुमति काटना मना था। जंगलो में बिना अनुमति शिकार करना, मछली पकड़ना इत्यादि भी प्रतिबन्धित कर दिया गया। पतरोलों (फॉरेस्ट गार्ड) ने इस चरण में जनता पर अमानवीय अत्याचार किए।

1911 ई0 से 1917 ई0 के मध्य स्टॉइफ और नेल्सन महोदय ने जंगलात बंदोबस्त किया। प्रजा के सभी जंगल अधिकार छीन लिया गए। पत्ती तोडने पर भारी जुर्माना व दण्ड दिया जाता था। इस चरण में कमिश्नर पी० बिण्डन ने ही प्रजा के कष्टों को थोड़ा महसूस किया। एक जाँच कमेटी बिठाई एवं प्रजा को कुछ और हक देने तथा कुछ जंगलो को खोलने की सिफारिस की। कुमाऊँ सर्किल का अलग से गठन हुआ जिसका संचालन नामजद सदस्यों एवं सरकारी कर्मचारियों द्वारा होता था। इसे कुमाऊँ-जंगलात कमेटी के नाम से जाना जाता है। इस कमेटी में सुनवाई तो होती थी किन्तु कार्यवाही सरकार अपने अनुसार ही करती थी। इस काल में पंचायती जंगल बनाने का प्रसार भी हुआ था। जंगलात प्रबन्ध के लिए एक चीफ कंर्जवेटर होता था। उनके अधीन कई कर्जवेटर होते थे। उनके नीचे डिप्टी कर्जवेटर, रेंजर, डिप्टी रेंजर, फॉरेस्टर एवं फॉरेस्ट गार्ड (पतरोले) होते थे। अंग्रेजों द्वारा वन प्रबन्धन का यह ढाँचा बिना परिवर्तन के वर्तमान में भी जारी है।

न्याय एवं पुलिस व्यवस्था

चंद राजाओं के समय में पुलिस प्रबन्ध थोकदारों व प्रधानों' के हाथों में होता था। तराई क्षेत्र में मेवाती व हेड़ी मुस्लमान पुलिस का कार्य सम्पन्न करते थे। गोरखों का शासन फौजी था। अतः सैन्य अधिकारी ही यह कार्य भी देखता था। अंग्रेजी शासन काल की स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र में पुलिस व्यवस्था का एक सुदृढ़ ढाँचा तैयार हुआ। यद्यपि तराई क्षेत्र में अंग्रेजो ने हेड़ी व मेवातियों को प्रारम्भ में इस कार्य को ठेके पर दिया। इन लोगों को ठेका था कि वे इस इलाके में चोरी डकैती न होने देगें और यदि हुई तो माल पूरा करेंगे। किन्तु डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट शेक्सपियर की रिपोर्ट के बाद सन् 1813 ई० में यह व्यवस्था बंद कर दी गई और प्रत्येक घाटों पर कुमाऊँनी बटालियन के लोग रखे गए। भाबर तराई में जंगलो के मध्य लीकें काट दी गई जिनमें सवार पहरा दिया करते थे।

सामान्यतः पहाड़ी जिले अपराधिक नहीं समझे जाते थे इसलिए साधारण पुलिस (Regular Police) यहाँ पर पहले से भी नहीं थी। ट्रेल महोदय ने स्वयं स्वीकार किया है कि-'इस प्रांत में अपराधों की संख्या कम होने से फौजदारी पुलिस की कोई आवश्यकता नहीं है। कत्ल को यहाँ कोई जानता नहीं। चोरी व डकैती बहुत कम होती है। अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से लेकर अब तक जेल में 12 से ज्यादा कैदी कभी नहीं हुए और उनमें भी अधिकत्तर मेदानी क्षेत्रों से है। यहाँ पर मौतों का कारण सर्पदंश, जानवर से अथवा आत्महत्या से होती थी। स्त्री सम्बन्धी मुकदमें ज्यादा होते थे। 1824 ई0 में दास प्रथा के अंत और 1829 में सती प्रथा के अंत के साथ इनमें भी कमी आई।
पहाड़ों में अल्मोड़ा का थाना सबसे प्राचीन है जो 1837 ई0 स्थापित हुआ। इसके पश्चात क्रमशः 1843, 1869 ई0 ने नैनीताल और रानीखेत में थाना स्थापित हुए। अंग्रेजों ने यात्रा मार्ग पर  पुलिस व्यवस्था की। मोटरमार्ग के निर्माण के बाद इन पर भी ट्रैफिक पुलिस चौकियाँ स्थापित की गई।

पहाडों में कम खर्च पर पुलिस व्यवस्था का सर्वोत्तम तरीका ट्रेल महोदय ने निकाला। उन्होंने पटवारी के रूप में राजस्व पुलिस की स्थापना कर ग्रामीण क्षेत्र में पुलिस के सामान्य कार्यों को इस पद में निहित कर दिया। इस संदर्भ में रामजे की राय विशेष है कि- "मैं समझता हूँ कि हमारा गाँव सम्बन्धी पुलिस का तरीका भारत में सबसे अच्छा है। यह ग्राम पुलिस सस्ती है। इसमें सरकार का कुछ भी खर्च नहीं होता।" यद्यपि इस व्यवस्था में पटवारी, पेशकार, पंच, पतरौल इत्यादि सीधे-साधे व अशिक्षित जनता का अधिकाधिक शोषण करते थे। 1920-22 के असहयोग आन्दोलन के बाद पटवारी की स्थिति में परिवर्तन आया। साक्षरता बढ़ने से कुमाऊँ के लोग अब पहले जैसे सीधे न रहे। स्थानीय जनता में आई जागरूकता के कारण अब पटवारी को वसूली में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उसकी शक्तियाँ कम पड़ने लगी और पट्टी से उसका दबदबा न्यून होने लगा। 1925 ई0 के गजेत्यिर में इसलिए परिशिष्ट लिखा गया कि अब रामजे साहब की राय में संशोधन होना जरूरी है।

सामान्यतः ब्रिटिश राजकाल में सारे प्रान्त की पुलिस व्यवस्था इन्सपैक्टर जनरल के हाथों में होती थी जिसके अधीन सुपरिटेन्डेन्ट, डिप्टी सुपरिटेडेन्ट, इन्सपैक्टर सब-इन्सपैक्टर होते थे। कमोबेश पुलिस का यही ढाँचा बिना परिवर्तन के अब भी जारी है। न्याय व्यवस्था के तहत वर्ष 1838 ई0 के नियम-10 के तहत जिले के पश्चिमकोत्तर भाग में सदर दीवानी अदालत, सदर निजामत अदालत और सदर बोर्ड माल के अधीन हुए। बोर्ड ऑफ रेवेन्यू इस क्षेत्र में मालगुजारी के विषय का अधिष्ठाता था। इस सम्बन्धी मामलो की सुनवाई केवल माल की कचहरियों में ही होती थी। सन् 1894 ई0 तक कुमाऊँ कमिश्नर ही न्याय का सर्वेसर्वा था। उसे फांसी देने तक का अधिकार था जिसकी अपील हाईकोर्ट में नहीं हो सकती थी। 1894 ई0 से 1914 ई0 तक सेशन जज के कोर्ट खुले। वर्ष 1914 ई0 में न्याय विभाग पृथक हो गया और इनका सीधा सम्बन्ध उच्च न्यायालय से हो गया। पहला मुंसिफ वर्ष 1929 ई0 में नियुक्त हुआ। कमिश्नर के रिश्तेदार को सदर अमीन बनाया गया। 1838 ई० में ये पद समाप्त कर दिए गए। अधिनियम 10, 1838 के अनुसार कुमाऊँ को गढ़वाल एवं कुमाऊँ दो प्रान्तों में विभक्त किया गया। एक-एक सिनियर असिटेण्ट कमिश्नर और सदर अमीन नियुक्त हुए। मुसिंफ के अधिकार तहसीलदार पद में निहित कर दिए गए।

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