उत्तराखंड की प्रमुख वनौषिधियां या जड़ी -बूटियां(Main Herbs of Uttrakhand)
उत्तराखंड में पौधों की लगभग 1750 प्रजातियां पाई जाती हैं। इसमें से लगभग 700 प्रजातियां औषधि के काम आती है।उत्तराखण्ड प्राकृतिक वनस्पतियों का खजाना है।चरक संहिता में इस क्षेत्र को वानस्पतिक बगीचा कहा गया है और हिमालय को हिमवन्त औषधं भूमिनाम कहा गया है।किल्मोड़ा का प्रयोग पीलिया, घोड़चक को अतिसार, मरोड़फली को सर्पविष और चिरायता को ज्वर उतारने में प्रयोग किया जाता है।
बांज(Oak)
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बांज ( Oak) ट्री |
उत्तराखण्ड का वरदान/उत्तराखण्ड का सोना/ शिव की जटाएं आदि नामों से जानते हैं।
यह एक शीतोष्ण कटिबंधीय/पर्वतीय शीतोष्ण वन का वृक्ष है।
इसका वैज्ञानिक नाम क्वरकस ल्यूकोटाइफोरा है।
विश्व में इसकी 40 प्रजातियां तथा उत्तराखण्ड में 5 प्रजातियां पाई जाती हैं।
अग्निपुराण में इस वृक्ष को दशपुत्रों समुद्रम कहा गया है।
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ब्राहमी(Brahmi) बीज |
ब्राहमी(Brahmi)
इसका वानस्पतिक नाम सेन्टेला एशियाटिका एवं कुल एपिएसी है।
यह एक बहु-वर्षीय शाक है।
यह संपूर्ण भारत में पाया जाता है, जबकि राज्य में हरिद्वार में बहुतायत में पाया जाता है।
यह औषधि बुद्धिवर्द्धक होती है।
ममीरा(Mamira)
इसका वानस्पतिक नाम थालीक्ट्रम फोलियोलोसम एवं कुल रेननकुलेसी है।
यह हिमालयी क्षेत्र के 7000 फीट तक की ऊँचाई वाले स्थानों में पाया जाता है।
इस पौधे के जड़े पीले रंग की होती हैं।
यह औषधि के रूप में आँखों के लिए उपयोगी है।
पहले बद्रीनाथ के बाजार में इसकी जड़ों से बना सुरमा बेचा जाता था।
जिरेनियम(Geranium)
जिरेनियम एक सुगन्धित पौधा है। स्थानीय भाषा में इसे गुलाब की सुगन्ध वाला पौधा कहा जाता है।
इसका सुगन्धित होने का मुख्य कारण इसकी पत्तियों में गुलाब की सुगन्ध का होना है।
सर्वप्रथम जिरेनियम का पौधा नीलगिरी एवं शेवराय की पहाड़ियों पर बीसवीं सदी में आया।
इसे उत्तराखण्ड के कई स्थानों में उगाया जाता जा रहा है।
उत्तराखण्ड में इसके उत्पादन का मुख्य कारण अनुकूल जलवायु का होना है।
जिरेनियम का उपयोग खाद्य पदार्थों, उच्च गुणवत्ता के साबुन, त्वचा के लेप व फेसवॉस क्रीम बनाने के लिए होता है।
इस तेल की सबसे बड़ी विशेषता क्षारीय माध्यमों में भी इसका विघटन न होना है।
जैट्रोफा(Jatropha)
इसे रतनजोत के नाम से जाना जाता है।
जैट्रोफा साबुन, सौन्दर्य प्रसाधन, मोमबत्ती आदि के उद्योगों में किया जाता है।
यह पौधा राज्य में भूमि सुधार व भूमि कटाव को रोकने में सहायक है।
जैट्रोफा के बीजों से बायोडीजल भी तैयार किया जाता है।
भैंकल(Bhekal)
इसका वानस्पतिक नाम प्रिन्सिपिया यूटिलिस तथा कुल रोजेसी है।
यह 13000 फीट की ऊँचाई वाले स्थानों में पाया जाता है।
इस पौधे के फलों से प्राप्त होने वाले खाद्य तेल का उपयोग राज्य की भोटिया जनजाति द्वारा गठिया रोग के उपचार हेतु किया जाता है।
ममीरा (पीली जड़ी)
इसकी जड़े पीले रंग की होती हैं, जिसको ममीरा गांठ के नाम से बाजार में बेचा जाता है।
इसकी जड़ो से बना सुरमा आंखों के लिए उपयोगी होता है।
अमेश(Amesh)
इस पौधे का वानस्पतिक नाम हिपोफी रेम्राडिस एवं हिपोफी सालिसिफोलिया है तथा कुल एलिगनेसी है।
यह पौधा सामान्यतः 6000 से 13000 फीट की ऊँचाई पर पाया जाता है।
इस पौधे की जड़ों द्वारा नाइट्रोजन का स्थिरीकरण किया जाता है।
उत्तराखण्ड में इस पौधे के फलों का प्रयोग टमाटर के रूप में किया जाता है
चीन में इसके फल से 40 प्रकार के खाद्य पदार्थ तैयार किये जाते हैं।
इसका फल फेफड़े संबंधी रोगों के लिए बहुत उपयोगी है।
बिच्छू घास(Scorpion Grass)
इसका वानस्पतिक नाम अर्टिका डायोइका तथा कुल अरटिकेस है।
यह पौधा मूल रूप से यूरोपियन पौधा है किन्तु यह पौधा हिमालय में खरपतवार के रूप में पाया जाता है।
उत्तराखण्ड के स्थानीय निवासी इसका सेवन सब्जी के रूप में करते हैं।
बिच्छु घास के सेवन से एनिमिया रोग दूर होता है।
स्थानीय भाषा में इसे कण्डाली या सिसौंण कहा जाता है।
किलमोडा(Kilmoda)
इस पौधे का वानस्पतिक नाम बरबेरसि अरिस्टाटा तथा कुल बरबेरिडेसी है।
इस पौधे का तना जड़ छाल आदि में दो प्रकार के रस पदार्थ पाए जाते हैं जिसमें से बरबेरिस हाइड्रोक्लोराइड तथा रसोद निकाला जाता है जिससे आँखों से संबंधित रोगों का इलाज किया जाता है।
अल्मोड़ा का नाम इसी घास के नाम पर पड़ा ।
इससे बारबेरी क्लोराइड भी किकाला जाता है जिसका जापान सबसे बड़ा खरीददार देश है।
इसे दारूहरिद्रा या जरिश्क भी कहा जाता है।
यह पौधा वन्य जीव अधिनियम की प्रथम श्रेणी में रखा गया है।
भीमल(Bhimal)
इस पादप पौधे का वानस्पितिक नाम ग्रीविया अपोजिटिफोलिया तथा कुल टिलिएसी है।
यह पौधा हिमालयी क्षेत्र के संपूर्ण शीतोष्ण भागों में पाया जाता है।
इस पादप पाघे की कोमल शाखाओं का प्रयोग हर्बल शैम्पू बनाने में किया जाता है।
इस पादप पौधे के सभी हिस्से जैसे रेशे, तना, पत्ते, फल, लकड़ी का बहुपयोगी प्रयोग किया जाता है।
स्थानीय लोग टहनियों में से पत्तों को अलग कर इनका गट्ठर बनाकर नदी में डूबो कर रख देते हैं जिसे कुछ समय बाद निकालकर उसमें से रेशे निकालकर उससे रस्सीयां तैयार की जाती हैं।
झूला(Jhula Vanaspati)
5500 भी ऊँचाई तक झूला वनस्पति की मक्कू, छड़ीला आदि कई प्रजातियां पाई जाती हैं।
राज्य को इसके व्यापर से बहुत अधिक आय होती है।
इसका उपयोग सांभर व गरम मसाला, रंग-रोजन, हवन सामग्री बनाने व रेजिनोइड निकालने में किया जाता है।
जो सुगन्धी में प्रयोग किया जाता है।
प्रथम ग्रेड का झूला फ्रांस को निर्यात किया जाता है।
घिंघारू(Ghingharu)
यह 3600 मी की ऊँचाई पर तक उगता है।
इसके फल को खाया जाता है।
इस पौधे के सभी भाग हृदय रोगों के लिए फायदेमंद हैं।
शिकाकाई(Shikakai)
यह 2500 मी की ऊँचाई तक बहुतायत में पाया जाता है।
इसके पके फलों से आयुर्वेदिक शैम्पू बनाया जाता है।
श्यांवाली (निर्गुण्डी)(Nirgundi)
यह वनस्पति राज्य में 1000 मी की ऊँचाई तक पाई जाती है।
इस पौधे का हर भाग औषधीय है।
धुनेर(Dhuner)
यह पौधा 2000 मी से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है, जो कि टैक्सस प्रजाति का है।
इससे कैन्सर के इलाज के लिए टैक्साल नामक रसायन प्राप्त किया जाता है।
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