दीबा माँ मंदिर (माँ रशुलांण (रंशुली) दीबा) (Diba Maa Temple (Maa Rashulan (Ranshuli) Diba))

दीबा माँ मंदिर (माँ रशुलांण (रंशुली) दीबा) (Diba Maa Temple (Maa Rashulan (Ranshuli) Diba))

आस्था और प्रार्थना दोनों, अदृश्य हैं लेकिन,
वह असंभव चीजों को,  संभव बनाते हैं...।।
🚩जय माता दी🚩

दीबा माँ मंदिर, पौड़ी गढवाल

दीबा माँ मंदिर 
यह वह जगह है, जहाँ पहुंच कर भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है। यहाँ का इतिहास बहुत ही आश्चर्यजनक है। इस पावन स्थल की समुद्र तल से ऊंचाई 2520 मीटर है। दीबा माता ने इस स्थान पर तब अवतार लिया जब गोरखाओं ने पट्टी खाटली पर आक्रमण किया था। दीबा ने यहाँ सबसे पहले पुजारी के सपने में दर्शन दिए और अपना यह स्थान बताया। फिर इसी स्थान पर उन्होंने इनकी स्थापना कर दी, लेकिन यहाँ तक पहुंचना इतना आसान भी नहीं था क्योंकि यह मार्ग सीधा नहीं बल्कि काफी टेढ़ी-मेढ़ी गुफा से होकर उन्हें तय करना था। आज भी जिस पर्वत की चोटी पर माता की मूर्ति स्थापित है, उस स्थान के नीचे गुफा है किन्तु अब वह पूर्ण रूप से ढक चुकी है। पुजारी का गांव बहुत नीचे था सुरंग से ही वह इस स्थल पर पहुंचा था। तरह तरह की कथाएं इस माता के बारे मेरे को सुनने को मिली हैं। कोई तो बताते हैं कि इस स्थान के नजदीकी गांव की कोई कन्या घास काटने गई थी और उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। वही कन्या देवी के रूप में हुई। यहाँ के प्रसाद रसूली पेड़ के पत्ते हैं, उसके बारे में बताते हैं कि एक बार वहाँ बर्फबारी के समय 25-30 आदमियों की बारात जा रही थी। उनमें से एक बुजुर्ग ने कहा कि चलो माता के दर्शन कर लें लेकिन अन्यों ने देर होने के कारण मना किया। बुजुर्ग ने दीबा माता के दर्शन किये व दुल्हन के घर पहुँच गया। उसने सोचा था कि अन्य बाराती तो पहले ही पहुँच गये होंगे लेकिन दुल्हन वालों ने उसे बताया कि वहाँ कोई नहीं आया। उसके बाद दुल्हन के गांव के सभी लोग बारातियों को ढूंढने निकले तो देखा कि मनुष्यों की आकृति के कुछ पेड़ जो कि बारातियों की संख्या के थे, उनमें से कोई ऐसा लग रहा था मानो कोई ढोल पकड़ा,कोई दमाऊं तो कुछ मानो नाच रहे हों! वे वहीं बर्फ के बीच खड़े थे जो कि अब भी उन्हीं रसूली के वृक्षों के रूप में हैं। किसी किसी को उनकी आकृति भी उन्हीं की तरह दिखती है। उनके पत्ते ही दीबा माता के प्रसाद के रूप में भक्तों को दिये जाते हैं। माता का एक नाम इसलिए रशुलन दीबा भी है।

उस वक़्त यहाँ पर माता साक्षात् थी और उनके साथ एक सेवक था। माता इसी स्थान से ही सभी लोगों को गोरखाओं के आने की सूचना दिया करती थी। इस स्थान पर किसी की नज़र नहीं जाती थी किन्तु वो सभी को यहाँ से देख सकती थी और आज भी यहाँ पहूंच कर यदि आप देखो तो ऐसा ही है, यहाँ से चारों तरफ नजर जाती है लेकिन दूर-दूर तक कहीं से भी यहाँ नजर नहीं पहुंचती।
दीबा माँ मंदिर 

गढवाल पर गोरखाओं ने आक्रमण कर राज्य किया था। गढवाल के इतिहास में 'गोरख्याली अत्याचार' कुख्यात है ।
यहाँ पर उस वक़्त गोरखा लोग यहाँ की जनता को जिन्दा ही काट दिया करते या ओखलियों में कूट दिया करते थे। अभी भी वो ओखलियां मुझसे कुछ दूरी पर भी हैं, परन्तु माता ही उनसे उनकी रक्षा किया करती थी। अंत में माता ने गोरखाओं का संहार किया। पट्टी खाटली तथा गुजरू को उनसे आज़ाद करवाया। उसके पश्चात् इस स्थान पर जहाँ से माता लोगों को गोरखाओ के आने की सूचना दिया करती थी, उस स्थान पर एक ऐसा पत्थर था कि उसे जिस दिशा की और घुमा दिया जाता था, उसी दिशा में बारिश होने लगती थी। इस स्थान का यहाँ की गढ़वाली भाषा में नाम धवड़्या( आवाज लगाना) है।

दीबा मंदिर की मान्यता के अनुसार दीबा माँ के दर्शन करने के लिए रात को ही खड़ी चढ़ाई चढ़कर सूर्य उदय से पहले मंदिर पहुंचना होता है। वहां से सूर्य उदय का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। वहां से उगता सूर्य किसी को शिशु की तरह दीखता है और फिर घूमती हुई कांसे की थाली की तरह दिव्य दीखता है। यहाँ की विशेषता यह भी है कि अगर कोई यात्री अछूता( परिवार में मृत्यु या नए बच्चे के जन्म) है और अभी शुद्धि नही हुई है, तो वह कितना भी प्रयास क्यों न कर ले यहाँ नहीं पहुँच सकता है, लेकिन कोई कितना भी बूढ़ा हो या बच्चा हो चढ़ाई में कोई भी समस्या नहीं होती है। यहां रास्ते पर एक स्थान पर जल है, जिसका एक गगरी पानी लोग इस मन्दिर तक ले जाते हैं जो अनेकों की प्यास बुझा देता है और उसी जल से लोग भण्डारा करते हैं। मतलब 'फारा' होता है ।

कहा जाता है कि यहाँ पर दीबा माँ भक्तों को सफ़ेद बालों वाली एक बूढी औरत के रूप में दर्शन दे चुकी है। यहाँ पर ऐसी मान्यता भी है कि इस मंदिर के आस-पास के पेड़ मात्र भंडारी जाति के लोग ही काट सकते हैं, यदि कोई अन्य लोग काटें तो पेड़ो से खून निकलता है। हमारे संस्कृत विद्यालय चैधार,रीठाखाल,पौड़ी के ठीक सामने ही दीबा माता का पहाड़ है। ठण्ड की बारिश में वहाँ बर्फ पड़ती है। लोग दूर दूर से बर्फ देखने भी वहाँ जाते हैं। इस मंदिर के बारे में और बताने के लिए अपने कई चश्मदीद मित्रों को फोन कर रहा हूं कोई नहीं उठा रहा ।

माँ रशुलांण दीबा मंदिर उत्तराखंड, पौड़ी गढ़वाल जनपद

माँ रशुलांण दीबा मंदिर उत्तराखंड, पौड़ी गढ़वाल जनपद के पोखड़ा ब्लॉक, एकेश्वर ब्लॉक, बीरोंखाल ब्लॉक तथा थैलीसैण ब्लॉक के बीच में सकन्याण नाम की पहाड़ी पर स्थित है जो कि रशूली (मोर पंखीनुमा) के घने जंगलो से घिरी है इसे दीबा डांडा भी कहा जाता है | यहाँ माता की पूजा (अठवाड) का आयोजन हर 3 या 5 साल में एक बार किया जाता है | यह आयोजन बीरोंखाल ब्लॉक के गढ़कोट ग्रामसभा जिसमे गढ़कोट, चिणागैरी, बांगरझल्ला, गुडेलखिल मल्ला, छांचीरौ, सलमाण, घसेरा तल्ला, घसेरा मल्ला, सत्यनगर तल्ला, सत्यनगर मल्ला, भैंचुली, आदि गाँव के द्वारा किया जाता है |
दीबा माँ मंदिर 
पूजा (अठवाड) का शुभारम्भ गाँव गढ़कोट से होता है सबसे पहले पंडितो द्वारा दीबा माँ का पाठ किया जाता है और फिर दूसरे दिन भी प्रातः माँ का पाठ किया जाता है और फिर दोपहर गढ़वाल के पारंपरिक बाध्य यंत्रो ढोल दमो, निशाण के साथ जात निकलती है जिसमे गुडेलखील मल्ला, बंगरझल्ला चिणागैरी गढकोट आदि गाँव के सभी लोग अपनी अपनी जात के साथ सत्यनगर मल्ला पहुंचते है | सत्यनगर मल्ला पहुँचने के बाद सबसे पहले सभी दिशा – ध्याणियों का स्वागत किया जाता है | और वहाँ पर रात के भोज का आयोजन किया जाता है जिसमे सबसे पहले दिशा – ध्याणियों को भोजन कराया जाता है तत्पश्चात सभी मित्रों, अथितियों एवं रिश्तेदारों को भोजन कराया जाता है और अंत में सभी ग्राम सभा वासी भोजन करते है | रात्रि भोज के पश्चात् जगराता होता है और बाहर धुनी लगाई जाती है और ढोल दमाऊ की थाप पर देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है और निरंकार भगवान के भण्डार (मंदिर) के अन्दर जागर द्वारा पौराणिक जागर कथा लगाकर डौंर थाली बजाकर सभी देवी देवताओं को नाचाते है और प्रातः ब्रह्ममुहूरत में वहां से माता दीबा की जात पैदल चलकर माता के मंदिर तक पहुंचती है | रास्ते में सबसे पहले पाणीरौला से पानी लेकर जाया जाता है पाणीरौला के बाद भैंसगल्या धार, कजेमौर्न्यागैरी, सकन्याण और खाडूमर्यां पड़ता है खाडूमर्यां के पास भैरों के नाम का खाडू मारा जाता है | खाडूमर्या के पास ही माता का मंदिर पड़ता है | वहां पहुंचकर माँ दीबा भगवती की पूजा की जाती है और उसके बाद सबसे पहले दिशा – ध्याणी माता को अपनी भेंट चढाते है दिशा – ध्याणियों की भेंट के पश्चात ही सभी भक्तगणों द्वारा भेंट चढ़ाई जाती है और अंत में सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर वापस सत्यनगर मल्ला पहुँच कर भंडारे का भोग लेकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते है और अपने अपने गाँव व शहर को वापिस हो जाते है | इसके अतिरिक्त चारों ब्लाक के 12 पट्टीयों के अन्य गाँवो में भी दीबा माँ की पूजा होती है और सभी जगह इसी तरह से दीबा माँ पूजा की जाती है और सभी का अपना अलग अलग रूट होता है सभी अपने अपने सुगम रूट से जात ले जाकर माता के मंदिर में पहुचते है| इन सब में गढ़कोट ग्रामसभा का (अठवाड) प्रमुख है | माता रानी के मंदिर में पहुचने के लिए इस रूट के अतिरिक्त कई अन्य रास्ते है जिसमे पट्टी –किमगडीगाड, ब्लाक– पोखड़ा के झलपाडी गावं से प्रमुख है यहाँ से पैदल यात्रा शुरू होती है यह यात्रा एक निश्चित स्थान झलपडी गावं के समीप (रुसैईदांग) के बाद नंगे पाँव पैदल की जाती है | कुछ श्रढालू पोखड़ा से भी अपनी यात्रा शुरू करते है | रात को घनघोर जंगलो के दुर्गम रास्तों का सफ़र अँधेरे में श्रढालू आराम से बगैर रास्ता भटके कर लेते है | और यहाँ प्रातः काल में ही माता के दर्शन किये जाते है |

पूर्व में यहाँ पर मंदिर का बहुत छोटा सा स्वरूप था | सन 2009 में गढ़कोट ग्रामसभा के सभी भक्तगणों द्वारा इस पुराने मंदिर का जीणोंद्वार किया गया और मंदिर को एक नया दिव्य एवं भव्य स्वरुप दिया गया है जो कि हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है | नये मंदिर के निर्माण एवं सुन्दरीकरण में लगभग 22 लाख का खर्च हुआ है जोकि गढ़कोट ग्रामसभा द्वारा किया गया है | गढ़कोट ग्रामसभा द्वारा इस मंदिर का पौड़ी जिलाधिकारी कार्यालय में पंजीकरण भी कराया गया है जिसकी संख्या 18076 पत्रांक संख्या जीoपीoजीo – 1451 तथा नवीनीकरण संख्या 61 सन 2017 -18 है |
(साभार ग्राम सभा गढ़कोट गांव सत्यनगर निवासी लोकगायक श्री ओम ध्यानी जी)
माता रानी के मंदिर में पहुचने के लिए इस रूट के अतिरिक्त कई अन्य रस्ते है जिसके माध्यम से उपरोक्त चारो ब्लाक के अन्य गाँवो में जब भी दीबा भगवती की पूजा होती है तो इसी तरह से माता पूजा की जाती है और माता की जात को अपने अपने सुगम रूट से ले जाकर माता के मंदिर में पहुचते है | जिसमे पट्टी –किमगडीगाड, ब्लाक– पोखड़ा के झलपाडी, गुडियलखिल मल्ला , सत्यनगर,जिवई ,नैंनस्यूं ,ग्वारी ,दमदेवल आदि गावं से भी पैदल यात्रा की जाती है। कुछ श्रढालू पोखड़ा से भी अपनी यात्रा शुरू करते है जो रास्ता ढूंडिगाड से होते हुए जहाँ पर तिलकिनी दीबा मंदिर से होते हुए रसुलांण तक जाता है | यहाँ से ज्यादातर श्रढालु रात को पैदल चढ़ाई करते हैं और प्रातः काल में ही माता के दर्शन करने के पश्चात् सूर्योदय के समय सूर्य भगवान के अद्दभुत एवं अकल्पनीय दर्शन करते है | यहाँ से वृहत हिमालय की गगन चुम्बी पर्वत श्रीखलाओं और कैलाश पर्वत के बीच से सूर्य का उद्गम होता है | जिसमे सूर्यदेव पहले लाल रंग, फिर केसरिया और अंत में चमकीले सुनहरे रंग में अपने स्वरुप बदलकर दर्शन देते है । यहाँ से सूर्य किसी को शिशु की तरह दिखता है और फिर घूमती हुई कांसे की थाली जैसे दिखता है। सूर्यादय के इस स्वरुप को देखने के लिए श्रढालू ब्रह्म मुहूरत में ही यहाँ पर पहुँच जाते है | यहाँ पर मई और जून के महीने में जाना उचित माना जाता है। इन महीनों में भी यहाँ पर बड़ी कडाके की ठंड पड़ती है इसलिए इन महीनों में भी यहाँ की यात्रा को गर्म कपड़ों की व्यवस्था के साथ करना पड़ता है। पूजा में नारियल और गुड (भेली) प्रसाद के रूप में चढाया जाता है | बहुत से श्रढालु चांदी के छत्र भी चढाते है | माता के मंदिर में रशूली नाम के वृक्ष के पते में प्रसाद लेना शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस रशूली के पेड़ की पत्तियों को हाथ से तोड़कर माता का प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस पेड़ पर कभी भी हथियार नहीं चलाया जाता है | श्रढालू मंदिर के बगल में सुंदर रशूली के जंगल से रशूली की मोर पंखीनुमा पत्तियों को अपने साथ प्रसाद के रूप में लाते है और अपने घर के चारों कोनों या पूजाघर में सम्भाल के रखते है |
दीबा माँ मंदिर 

दीबा माँ कैसे प्रकट हुई :

शोधकर्ता ग्राम सभा गढ़कोट निवासी श्री ओम ध्यानी जी जिन्होंने लगभग 25 सालों तक इस पर शोध किया और उनके अनुसार के मलेथा गांव में कालूसिंह भंडारी के यहाँ माधोसिंह भंडारी का जन्म हुआ था जिनकी नौ खंभों की हवेली (तिवारी) थी | माधोसिंह भंडारी गढ़वाल के राजा महीपत शाह के बहादुर सेनापतियों में से एक थे जिन्हें विशिष्ट योद्धाओं में स्थान प्राप्त था | कहा जाता है कि एक बार जब वह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव मलेथा पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उनकी पत्नी द्वारा उन्हें रूखा सूखा खाना दिया गया | जब उन्होंने सूखा खाना दिया जाने की बजह पूछा तो उनकी पत्नी ने ताना मारा कि जब गाँव में पानी ही नहीं है तो हरी भरी सब्जियां ओर अनाज कैसे पैदा होगा | माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। और रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी ली थी। उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे। माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे, लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है।

कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा। कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह को पुत्र वियोग बहुत दुःख देने लगा और वे वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे | पुत्र वियोग में ही उनकी पत्नी ने श्राप दिया था कि आगे से मलेथा में माधो सिंह जैसा कोई वीर भड पैदा न हो जो अपने पुत्र कि ही बलि दे दें | इस श्राप के डर से उनके परिवार के कुछ भाई बन्धुओं मलेथा गाँव छोड़कर पौड़ी गढ़वाल के पट्टी –किमगडीगाड, ब्लाक– पोखड़ा के चोपड़ा एवं श्रीकोट गाँव में बस गये | यह सोचकर कि यदि हम यहाँ रहते है तो शायद श्राप के प्रकोप से हमारी पीढ़ी आगे पनप नहीं पायेगी | कुछ समय बाद श्रीकोट के काला भंडारी परिवार में एक कन्या का जन्म हुआ और जब वह जवान हुई तो उनका रिश्ता चौथान क्षेत्र में तय हुआ था और मंगसीर महीने के अंतिम तारिक को शादी होनी तय हो गई | लगभग नौ बीसी याने कि 9X20 = 180 बरातियां बारात लेकर तय तिथि को श्रीकोट गाँव पहुंचें | वापिसी में जब बारात सकन्याण पहाड़ी के पास से गुजर रही थी तो तो अचानक भारी हिमपात होने लगा और सभी बाराती वहां बर्फ में दब गयें | उस समय दूर संचार ब्यवस्था न होने के कारण दुल्हे पक्ष वालो ने समझा कि बर्फबारी के चलते शायद बारात वही रुक गई होगी और दुल्हन पक्ष वालों ने समझा कि बाराती समय पर अपने घर पहुँच गये होंगे | दो चार दिन बाद तक जब बारात वापस नहीं आयी तो तब सभी बारातियों को ढूँढने निकल पड़े परन्तु बारातियों का कुछ पता नहीं चला | कुछ दिन बाद श्रीकोट गाँव में दोपहरी में ही बाघ लड़ते हुए दिखने लगे | जिससे भंडारी परिवार वालों को लगा कि कुछ गड़बड़ है तो वे नजदीक में पूछ करने वाले (बक्य्या) के पास गये तो तब बक्य्या ने बताया कि आपकी बेटी आप पर हंत्या लगी हुई है क्यूंकि उसकी शादी तो हो गई थी पर वह हिमपात के चलते रस्ते में ही मर गई थी और ससुराल तक नहीं पहुँच पाई थी | तब जागरी बुलाकर उसका आवाहन (घड्यलू) दिया गया और उसको नचाया गया | हंत्या नाचते समय वह देवी के रूप में नाच गई और कही कि मुझे ऊंचा स्थान चाहिए जहाँ से चौखम्भा हिमालय दिखाई दे और साथ ही 7 घाटियों (गैरी) में रशुली के पेड़ हो वहीँ पर मुझे मानाने के लिए आना | परिवार वाले जब उस स्थान को ढूंढने के लिए निकले तो तब जिस जगह पर बर्तमान में मंदिर स्थापित है उसी की जगह में त्रिशूल और दिया मिला और वही से साक्षात् चौखम्भा हिमालय दिखाई दे रहा था और 7 घाटियों (गैरी) में रशुली के पेड भी मिले तब जाकर माता को उस जगह पर स्थान दिया गया | आसपास रशुली के पेड़ / जंगल होने के कारण माँ का नाम माँ रसुलाण दीबा पड़ा |

 माता  काली / कालिका / महाकाली मंत्र आरती पूजा चालीसा इत्यधि 

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