उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं "रानी कर्णावती (नक्कटी रानी) कथा या कहानी" Famous Women of Uttarakhand "Rani Karnavati (Nakkati Rani) Katha or Story"

 रानी कर्णावती (नक्कटी रानी)

उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं  "रानी कर्णावती (नक्कटी रानी) कथा या कहानी"

Famous Women of Uttarakhand "Rani Karnavati (Nakkati Rani) Katha or Story"
नक्कटी शब्द सुनते ही हमें कौन याद आता है? रावण की बहन सूर्पनखा सही ना पर क्या आप किसी और नक्कटी के बारे में जानते है। मुझे पूरा यकीन है की आप में से केवल कुछ ही लोग है जो इसके अलावा किसी और यानि नक्कटी रानी के बारे में जानते है। उस रानी का नाक नहीं कटा था किसी ने बल्कि उस रानी ने अपने दुश्मन सेना के सैनिकों को गिरफ्तार कर उनके नाक काट कर वापिस भेजा ताकि कोई दुश्मन उसके राज्य की ओर बुरी नजर न डाले। भारत के गौरवपूर्ण इतिहास में देवभूमि की वो एक वीरांगना महारानी, जिसने न सिर्फ शाहजहां की विशाल सेना को हराया बल्कि 30 हजार मुगलों सैनिकों की नाक काट कर वापिस भेजा ताकि कोई दुश्मन उसके राज्य की ओर बुरी नजर न डाले।

इतिहास में गढवाल की रानी कर्णावती का उल्लेख नाक काटने वाली रानी के नाम से मिलता है। इतिहास में कर्णावती नाम की दो रानियों का उल्लेख मिलता है। इनमें एक चित्तौड के शासक राणा संग्राम सिंह की पत्नी थी, जिन्होंने अपने राज्य को गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के हमले से बचाने के लिए मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी थी। दूसरी रानी कर्णावती थी पवार वंश के गढ़वाल के राजा महिपत शाह की पत्नी । गढ़वाल की इस रानी ने पूरी मुगल सेना की बाकायदा सचमुच नाक कटवायी थी। कुछ इतिहासकारों ने इस रानी का उल्लेख नाक काटने वाली (नक्कटी) रानी के रूप में किया है। शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी के अलावा शम्सुद्दौला खान ने 'मासिर अल उमरा' में इटली के लेखक निकोलाओ मानुची

जब सत्रहवीं सदी में भारत आये थे ने अपनी किताब 'स्टोरिया डो मोगोर' यानि 'मुगल इंडिया' में गढ़वाल की एक रानी के बारे में उल्लेख किया है।

उस समय देश में मुगल शासन था। सन 1622 में महिपतशाह राजतिलक के बाद अपने शासन को और मजबूत किया और साम्राज्य को गढ़वाल के लगभग सभी हिस्सों में फैलाया। उन्होंने अपने साम्राज्य की राजधानी देवलगढ़ से श्रीनगर बनाया। यह वही महिपतशाह थे जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को छठी का दूध याद दिलाया था और भागने पर मजबूर किया था। 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। देश के तमाम राजा राज्याभिषेक में शामिल होने आगरा पहुंचे थे, परन्तु स्वाभिमानी राजा महिपतशाह आगरा नहीं गये। उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी। शाहजहां इससे चिढ़ गया था, उसने इसे अपना अपमान माना था पर वह तुरंत उनसे युद्ध नहीं चाहता था। उसने महिपतशाह के हाथों तिब्बतियों की बुरी तरह हार और पलायन के किस्से सुन रखा था।

सन 1631 में जब राजा महिपतशाह की मृत्यु हुई तब उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात वर्ष के थे, अतः रानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे की संरक्षिका शासिका के रूप में शासन सूत्र संभाले थे। राजकाज संभालने के बाद उन्होंने अपनी देखरेख में शीघ्र

ही शासन व्यवस्था को सुद्यढ किया। वे अपनी विलक्षण बुध्दि एवं गौरवमय व्यक्तित्व के लिए प्रसिध्द हुईं।
सन 1634 में बदरीनाथ धाम की यात्रा के दौरान छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की सिख गुरु हरगोविन्द सिंह से भेंट गढवाल के श्रीनगर में हुई। इन दोनों महापुरषों की यह भेंट बडी महत्वपूर्ण थी क्योंकि दोनों का एक ही लक्ष्य था 'मुगलों के बर्बर शासन से मुक्ति'। रानी कर्णावती को सौभाग्य से देवदूत के रूप में समर्थ गुरु स्वामी रामदास से भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ गुरु रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा कि क्या पतित पावनी गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भूखंड में यह शक्ति है कि वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मार्यादा की रक्षा के लिये मुगल शक्ति से लोहा ले सके। इस पर रानी कर्णावती ने विनम्र निवेदन किया पूज्य गुरुदेव, इस पुनीत कर्तव्य के लिये हम गढवाली सदैव कमर कसे हुए उपस्थित हैं। शाहजहां को समर्थ गुरु रामदास और गुरु हरगोविन्द सिंह के श्रीनगर पहुंचने और रानी कर्णावती से सलाह मशविरा करने की खबर लग गयी। राजा महीपति शाह के शासनकाल में जो मुगल सेना गढवाल विजय के बारे में सोचती भी नहीं थी, परन्तु उनकी मृत्यु के बाद जब रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन संभाला तब मुगल शासकों ने सोचा कि उनसे शासन छीनना सरल होगा, यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी।

शाहजहाँ ने गढ़वाल के पड़ोसी सिरमौर के राजा मान्धाता प्रकाश को अपनी ओर मिला लिया और कांगड़ा के फौजदार नजावतखां के नेतृत्व में सन 1635 में शाहजहाँ ने एक संयुक्त सेना गढ़वाल की ओर आक्रमण के लिये भेजा। इस सयुंक्त सेना में 35000 घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। संख्याबल के आधार पर मुगल सेना रानी की सेना से काफी बड़ी थी इसलिये ऐसी विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा।

रानी कर्णावती ने छुटपुट विरोध करते हुए उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया। मुगल सेना को दून घाटी और चंडीघाटी (वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला) को अपने कब्जे में करने दिया। लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तब उन्हें वहीं रोकने के लिए रानी कर्णावती ने मुगल सेनापति नजावतखां को संदेश भिजवाया की वह मुगल बादशाह की आधीनता स्वीकार करने को तैयार हैं। अपने सन्देश में रही ने कहा की उन्हें आधीनता स्वीकारने और युद्ध का हर्जाना के तौर पर बादशाह को भेंट स्वरूप में दस लाख रूपये भी देने के लिए तैयार हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें कम से कम दो सप्ताह का समय दिया जाय। मुगल सेनापति ने यह खबर अपने बादशाह शाहजहाँ तक पहुंचाई और समय देने की इजाजत मांगी। शाहजहाँ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा वह सोचने लगा की उसने अपने अपमान का बदला ले लिया उसका गढ़वाल पर कब्ज़ा करने का सपना अब सत्य होने वाला है। शाहजहाँ ने खुशी खुशी इजाजत दे दी। वे इसके पीछे छिपे रानी की चाल को समझ नहीं सके।

रानी की सेना ने संयुक्त मुग़ल सेना को जश्न में उलझाकर उनके आगे और पीछे जाने के रास्ते रोक गुप्त रूप से बंद कर दिया। नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा। रानी ने इस दौरान थोड़ा थोड़ा करके उसे केवल एक लाख रुपया दिया। इस बीच गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का पूरा मौका मिल गया। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। उनके लिये रसद के सभी रास्ते भी बंद थे। सेना का जो भी सैनिक सामान लेने जाता स्थानीय लोग उसे लूट लेते और मार देते। जब तक यह बात मुग़ल सेनापति नजावतखां को समझ आती बहुत देर हो चुकी थी। मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने रानी के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन रानी ने कुछ दिन उसपर विचर करने के बहाने लिया और फिर उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी।

नजावतखां की नेतृत्व वाली मुग़ल सेना जब पूरी तरह कमजोर हो गयी और उनका सारा राशन समाप्त हो गया था। न वे आगे बढ़ सकते थे और न पीछे हटने का रास्ता खुला था वे पूरी तरह से फंस चुके थे। तब गढ़वाल की सेना ने पूरी शक्ति से आक्रमण किया ओर नजावतखां की नेतृत्व वाली संयुक्त मुग़ल सेना को बुरी तरह हरा दिया। नजावतखां सहित 30000 संयुक्त सेना के सैनिकों ने हथियार डाल दिया।   
रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों का कत्ल करने का आदेश दे सकती थी लेकिन उन्होंने अपने सारे दुश्मनों को एक कड़ा सन्देश देने का सोचा। एक ऐसा सन्देश जो युगों तक दुश्मनों को गढ़वाल पर हमला करने से पहले याद रहे और उनके दिल में दहशत पैदा करे। उन्होंने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान दे सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। रानी के गुप्तचर जो उन गिरफ्तार सैनिकों के बीच घुल मिल गए थे उनसे सैनिकों को मनवा लिया कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी। कुछ  विरोध के बाद वे सब मान गए।

मुगल सैनिकों के एक एक करके नाक काट गए, उनके सारे हथियार छीन लिए गये और आखिर में उन्हें अर्धनग्न कर वापिस छोड़ दिया गया। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक काटी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह इससे काफी शर्मसार था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा और उसे जब इस हालत में किसी ने पहचान लिया तब उसने शर्म से खुदखुशी कर ली। शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। इसी घटना के वजह से पृथ्वीपतिशाह की संरक्षिका और गढ़वाल के राजा महीपतिशाह पत्नी भारतीय इतिहास की सबसे पराक्रमी रानी कर्णावती को 'नाक-काटी-रानी' या 'नक्कटी रानी' कहा जाता है। उस समय रानी कर्णावती की सेना में एक अधिकारी दोस्त बेग हुआ करता था जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी।

इस तरह मोहन चट्टी में मुगल सेना को नेस्तनाबूद कर देने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही पूरी दून घाटी को भी पुनः गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया। गढवाल की उस नककटवा रानी ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर शान के साथ फहरा दी और समर्थ गुरु रामदास को जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया।

रानी कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रूप में रहीं लेकिन युवराज पृथ्वीपति शाह के बालिग होने पर उन्होंने सन 1642 में उन्हें शासनाधिकार सौंप दिया और अपना शेष जीवन एक वरिष्ठ परामर्शदात्री के रूप में बिताया। शाहजहां ने बाद में बड़ी हिम्मत कर के दुबारा अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया और उसे भी हार का सामना करना पड़ा। बाद में शाहजहां के बेटे मुग़ल साम्राज्य के सबसे अत्याचारी औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया।

मुगलों का नाक काटने वाली महारानी कर्णावती

सन 1622 में महाराजा श्याम शाह की मौत अलकनंदा में डूबने के कारण होगई। उसके बाद उनके पुत्र महाराजा महिपत शाह ने मुगलों की सत्ता को कई बार चुनौती दी। इतना ही नहीं, उन्होंने तिब्बत तीन बार आक्रमण किया, लेकिन 1631 में में वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए।


उस समय उनके बेटे पृथ्वी शाह की उम्र सिर्फ 7 साल थी। ऐसे राज्य की बागडोर महारानी कर्णावती के हाथों में आ गई। महारानी कर्णावती हिमाचल के राजपरिवार से थीं, इसलिए शासन कला में वह सिद्धहस्त थीं। लेकिन, एक महिला को शासन करते देख काँगड़ा का मुगल सूबेदार नजाबत खान (Nazabat Khan) ने मुगल बादशाह शाहजहाँ (Mughal Ruler Shahjahan) से आज्ञा लेकर 1635 में गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर पर आक्रमण करने के लिए बढ़ चला।

17वीं शताब्दी भारत आए इटली के यात्री निकोलाओ मानूची ने कर्णावती और मुगलों के संघर्ष के बारे में विस्तार लिखा है। उसने लिखा है कि मुगल सैनिक जब शिवालिक की तलहटी से ऊपर चढ़ना शुरू किया, तब गढ़वाली सैनिकों ने गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया।


हिमालयन गजेटियर में अंग्रेज़ विद्वान एडविन एटकिंसन ने लिखा है कि महारानी कर्णावती पर्वत की चोटी पर मौजूद बिनसर मंदिर से दुश्मनों के खिलाफ सेना का संचालनकर रही थीं। एक समय ऐसा भी आया, जब उनकी स्थिति कमजोर होने लगी तब अचानक ओलावृष्टि शुरू हो गई। इससे दुश्मन पीछे हटने पर मजबूर हो गया। महारानी ने इसे भगवान का आशीर्वाद समझा।

मुगल सैनिक भागकर पहाड़ियों की तलहटी में पहुँच गए। वहाँ पहले से छिपे सैनिकों ने उन्हें घेर लिया और महारानी कर्णावती के आदेश पर घाटी के दोनों तरफ के रास्ते बंद करा दिए। लगभग 50 हजार मुगल सैनिक घाटियों में फँसकर रह गए। इसके बाद सेनापति नजाबत खान ने शांति प्रस्ताव भेजा, लेकिन महारानी तैयार नहीं हुईं। रसद खत्म होने के बाद नजाबत खान ने महारानी से वापस लौटने की इजाजत में माँगी। इसके लिए महारानी ने एक शर्त रखी।
महारानी कर्णावती ने नजाबत खान को संदेश भेजवाया कि उसके सैनिक वापस लौट सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। मुगल सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर नाक कटवा कर वापस लौट चले। इस घटना से लज्जित होकर नजाबत खान ने रास्ते में आत्महत्या कर ली। वहीं शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कभी आक्रमण नहीं करने का फरमान जारी कर दिया।

इस घटना के बाद महारानी कर्णावती को नक्कटी रानी यानी दुश्मन की नाक काट लेने वाली रानी कहकर संबोधित किया जाने लगा। तंत्र-मंत्र से संबंधित एक अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ‘सांवरी ग्रंथ’ में उन्हें माता कर्णावती कहा गया है। वहीं, मुगल दरबारों की वृस्तांत वाली पुस्तक ‘मआसिर-उल-उमरा’ और यूरोपीय इतिहासकार टेवर्नियर ने अपनी किताबों में महारानी कर्णावती को मुगलों की हेकड़ी निकाल वाली रानी कहा गया है।
नक्कटी रानी

जनकल्याण के लिए महारानी ने कई काम किए

1646 में पृथ्वी शाह को गद्दी सौंपी गई, तब तक महारानी कर्णावती ने लोकोपकार के लिए अनेक काम किए। सबसे पहले उन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उन्होंने राज्य में कृषि और सामाजिक कल्याण के लिए कई कार्य किए। उन्होंने राजपुर की नहर बनवाई। देहरादून में अजबपुर, करनपुर, कौलागढ़, भोगपुर जैसे आधुनिक नगर बसाए, जो बाद में मुहल्ले बन गए। नवादा में उनका बनवाया हुआ महल आज भी खंडहर के रूप में मौजूद है।
वहीं, बिनसर महादेव आज श्रद्धा का एक केंद्र बन चुका है। गढ़वाल सहित हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले लोग इस मंदिर में एक बार जरूर जाना चाहते हैं। यहाँ दर्शन करने जाने के लिए जब यात्रा शुरू होती है तो उसे ‘जात्रा’ कहा जाता है। जात्रा के दौरान स्त्री और पुरुष लोकगीत गाते हैं।

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