कुमाऊं के अल्मोड़ा में पहली बार बिशनी देवी ने ही तिरंगा फहराया था.(For the first time in Almora, Kumaon, Bishni Devi hoisted the tricolor.)

आजादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला थी बिशनी देवी शाह (Bishni Devi Shah)

कुमाऊं के अल्मोड़ा में पहली बार बिशनी देवी ने ही तिरंगा फहराया था.

अल्मोड़ा में रहने वाली, बैठकों में जाने लगी
थी अकेली योद्धा ये, बदलाव बड़े लाने लगी
स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय ध्वज फहराने लगी
आज़ादी लाने की चिंगारी हर दिल में जगाने लगी
गांधी जी की गिरफ्तारी के विरोध में कुमाऊं परिषद के झण्डे तले एक विशाल रैली अल्मोड़ा में 14 अप्रैल 1919 को निकाली गई. रैली में लोगों की संख्या को देख कर अंग्रेज सरकार के होश उड़ गए. अंग्रेजों के खिलाफ लोगों की भावना किस तरह विद्रोह में बदल रही थी, इसका विस्फोटक रुप 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में मकर संक्रान्ति के दिन देखने को मिला, जब बद्रीदत्त पान्डे के नेतृत्व में सरयू के किनारे खड़े होकर हजारों लोगों ने “बेगार न करने” की शपथ ली और कुली बेगार से सम्बोधित दस्तावेजों को सरयू में बहा दिया.

कुमाऊं में स्वतंत्रता आन्दोलन अंग्रेज सरकार के दमन के बाद भी लगातार तेज हो रहा था. आन्दोलन को तेज करने के लिए ही 1934 में ही रानीखेत में हर गोविन्द पंत की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई. जिसमें बिशनी देवी को कार्यकारिणी में महिला सदस्य के तौर पर निर्वाचित किया गया. अल्मोड़ा के कांग्रेस भवन में 23 जुलाई 1935 को उन्होंने तिरंगा फहराया. तब कुमाऊं  में जनजागरण के लिए पहुँची विजय लक्ष्मी पंडित ने भी बिशनी देवी साह की स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका की प्रशंसा की थी. उन्होंने 26 जनवरी 1940 को अल्मोड़ा में एक बार फिर से झण्डारोहण किया और 1940-41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भाग लिया. जब 1942 में कांग्रेस ने ” अंग्रेजो भारत छोड़ो” का नारा दिया और पूरा देश इससे आन्दोलित हो उठा तो बिशनी देवी साह ने भी अल्मोड़ा में इस आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की. जब 15 अगस्त 1947 को देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तो बिशनी देवी साह ने अल्मोड़ा में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के साथ निकाले गए विशाल जलूस का नेतृत्व किया.

स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने के बाद भी आजादी के बाद उन्हें वह महत्व नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था. जीवन के अंत दिनों में उन्हें बहुत आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ा. घोर आर्थिक संकट के बीच ही 1974 में उनका निधन हो गया. देश की आजादी के लिए बिशनी देवी साह जैसे स्वतंत्रता के जुनूनियों ने अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया, लेकिन आज कुछ स्वार्थी लोग ऐसे बलिदानियों के ऊपर ही सवाल करने से भी हिचकिचाते. देश एक बार फिर से वैचारिक संकट के दौर से गुजर रहा है.

मै अबला नादान नहीं हूँ, 
दबी हुई पहचान नहीं हूँ।
रखती अंदर ख़ुद्दारी हूँ
मै निडर नारी हूँ।। 

बिशनी देवी शाह आजादी की लड़ाई में शामिल होने वाली उत्तराखंड की महिला स्वतंत्रता सेनानी थी। वह आजादी के लिए जेल जाना वाली उत्तराखंड की पहली महिला थीं। उनका जन्म अक्टूबर1902 को बागेश्वर में हुआ। बिशनी देवी के जन्म के वक्त देश के साथ साथ कुमाऊं में भी आजादी के आंदोलन की अलख जग चुकी थी। 13 साल की उम्र में उनकी शादी हुई। शादी के तीन साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया। उस वक्त अंग्रेजों के अत्याचार को खत्म करने के लिए अल्मोड़ा में भी बैठकों का दौर जारी था।

1919 में बिशनी देवी आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी। महात्मा गांधी की प्रेरणा से उन्होंने स्वदेशी का प्रचार-प्रसार शुरू किया।आजादी की इस लड़ाई में उन्हें दिसबंर 1930 और 1933 में दो बार जेल भी जाना पड़ा। उन्होंने कुमाऊं में स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए दो नाली जमीन और अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी। आजादी के 75 साल बाद भी गांवों में बदहाल व्यवस्थाओं से आजादी मिलने का लोगों को इंतजार है। आजादी के बाद लोगों को बदहाल स्वास्थ्य, शिक्षा और सड़क सुविधाओं से मुक्ति मिलने की उम्मीद थी लेकिन अब तक उनकी यह उम्मीद परवान नहीं चढ़ सकी है। इसकी मायूसी आजादी का दौर देख चुके बुजुर्गों के चेहरे पर साफ झलकती है। आजादी का दौर देख चुके बुजुर्गों से बात की तो उन्होंने बेबाकी से अपनी राय रखी।

उन्होंने कहा कि आज विकास के बजाय कुर्सी की लड़ाई अधिक है। हर दल के नेता विकास के नाम पर वोट मांगने तो आते हैं लेकिन गांव में विकास दूर-दूर तक दिखता नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर इलाज के दावे कर आजादी के बाद अस्पताल खोले गए लेकिन 75 साल बाद भी इन अस्पतालों में डॉक्टर तक नहीं है। हालात ये हैं कि मामूली इलाज के लिए मरीजों को हायर सेंटर रेफर किया जा रहा है। शिक्षा व्यवस्था के हाल भी ठीक नहीं हैं का है। स्कूल तो हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं। गांवों के विकास के लिए इन्हें सड़कों से जोड़ने के दावे हो रहे हैं लेकिन सड़क के अभाव में ग्रामीण पलायन करने के लिए मजबूर हैं और गांव खाली हो रहे हैं।

उन्होंने कहा कि बदहाल व्यवस्थाओं से मुक्ति मिलने का इंतजार है।आजादी के बाद उम्मीद थी कि गांव की समस्या का समाधान होगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका है। जिन्होंने देश की माटी की खातिर अपने प्राणों की आहुति दी। प्रधानमंत्री ने आजादी के अमृत काल में देशवासियों को पंच प्रण दिए हैं। भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का प्रण, गुलामी की मानसिकता से मुक्ति का प्रण, भारत की समृद्ध विरासत पर गर्व एवं उसका संरक्षण करने का प्रण तथा देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने का प्रण। जिस प्रकार आज तक हमने प्रधानमंत्री द्वारा प्रारंभ किए गए प्रत्येक अभियान को अपना सम्पूर्ण सहयोग एवं समर्थन दिया है, उसी प्रकार हम ज्मेरी माटी-मेरा देशज् अभियान को भी अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे। स्वाधीनता संग्राम में उत्तराखंड की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा है, जिसमें बिश्नी  देवी शाह का नाम अग्रणी महिला आंदोलनकारियों में शामिल है।
12 अक्टूबर, 1902 को बागेश्वर में जन्मी बिश्नी देवी ने महज चौथी क्लाास तक ही पढ़ाई की थीं। एक ओर विधवा और दूसरी ओर सामाजिक कुरीतियों से बीच जकड़ी बिश्नी देवी राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ी और आजादी के लिए लगातार संघर्षरत रहीं लेकिन आजादी के बाद उनके योगदान को भुला दिया गया। बिश्नीन देवी का राष्ट्र प्रेम 19 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय गीत के गायन से शुरू हुआ। कुमाऊंनी कवि गौर्दा के गीतों को महिलाएं रात्रि जागरण में गाया करती थी। इससे स्त्रियों में राष्ट्रीय भावना का संचार हुआ। अल्मोड़ा में नन्दा देवी के मन्दिर में होने वाली सभाओं में भाग लेने और स्वदेशी प्रचार कार्यों में बिश्नी देवी काम करने लगीं। आन्दोलनकारियों को महिलाएं प्रोत्साहित करती थीं, जेल जाते समय सम्मानित कर पूजा करती, आरती उतारतीं और फूल चढ़ाया करती थीं।

1929 से 1930 के बीच महिलाओं में जागृति व्यापक होती गई. 1930 तक ये स्त्रियां सीधे आन्दोलन में भाग लेने लगीं. तब अल्मोड़ा ही नहीं, रामनगर और नैनीताल की महिलाओं में भी जागृति आने लगी थी। 25 मई, 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय हुआ। स्वयं सेवकों का एक जुलूस, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं उसे गोरखा सैनिकों ने रोक दिया। इसमें मोहनलाल जोशी तथा शांतिलाल त्रिवेदी पर हमला हुआ और वे लोग घायल हुये। तब बिश्नी देवी शाह, दुर्गा देवी पन्त, तुलसी देवी रावत, भक्तिदेवी त्रिवेदी आदि के नेतृत्व में महिलाओं ने संगठन बनाया। कुन्ती देवी वर्मा, मंगला देवी पाण्डे, भागीरथी देवी, जीवन्ती देवी तथा रेवती देवी की मदद के लिये बद्रीदत्त पाण्डे और देवीदत्त पन्त अल्मोड़ा के कुछ साथियो सहित वहां आए। इससे महिलाओं का साहस बढ़ा। अंततः वह झंडारोहण करने में सफल हुईं, दिसम्बर, 1930 में बिश्नी देवी शाह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। जेल से छूटने के बाद बिश्नी देवी  खादी के प्रचार में जुट गईं।

उन्होंने अल्मोड़ा में चरखे का मूल्य घटवाकर 5 रुपये करवाया और घर-घर जाकर महिलाओं को दिलवाया। उन्हें संगठित कर चरखा कातना सिखाया। उनका कार्यक्षेत्र अल्मोड़ा से बाहर भी बढ़ने लगा। 2 फरवरी, 1931 को बागेश्वर में महिलाओं का एक जुलूस निकला तो बिश्नी देवी ने उन्हें बधाई दी। सेरा दुर्ग (बागेश्वर) में आधी नाली जमीन और 5 रुपये दान में दिये। वे आन्दोलनकारियों के लिये छुपकर धन जुटाने, सामग्री पहुंचाने तथा पत्रवाहक का कार्य भी करतीं थीं। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रियता के कारण जुलाई 1933 में उन्हें गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया। उन्हें 9 माह की सजा और 200 रुपये जुर्माना हुआ. जुर्माना न देने पर सजा और बढ़ाई गई। वहां से रिहा होने के बाद 1934 में बागेश्वर मेले में धारा 144 लगी होने के बावजूद उन्होंने स्वदेशी प्रदर्शनी करवाई।

26 फरवरी, 1940 को नन्दा देवी के प्रांगण में 10 बजे फिर झंडारोहण किया। बिश्नी दवी ने 1940-41 को व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया। उन्होंने अनेक शराब की दुकानों पर धरना दिया और विदेशी वस्त्रों की होलियां जलाई। 17 अप्रैल, 1940 को वे नन्दा देवी मन्दिर के समीप खुलने वाले कताई केन्द्र की संचालिका बनीं। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में ब्रिटिश सरकार को बिश्नी देवी ने आन्दोलनकारी महिला की भूमिका का एहसास कराया। पंडित जवाहरलाल नेहरु और आचार्य नरेन्द्र देव की अल्मोड़ा जेल से रिहाई के समय बिश्नी देवी ने उनकी अगवानी की। नन्दा देवी प्रांगण में 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता दिवस के दिन बिश्नी देवी शाह राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को पकड़कर नारे लगातीं हुई एक मील लम्बे जुलूस शामिल हुईं। अपने विधवा जीवन के खाली पन को स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़कर पूरा कर दिया। महिला कार्यकर्ता होने के कारण स्वाधीनता के बाद उन्हें भी कोई महत्व नहीं मिला, उनका अपना कोई न था। आर्थिक अभाव में उनका अन्तिम समय अत्यन्त कष्टपूर्ण स्थिति में बीता।

वर्ष 1974 में  73 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। आजादी के आंदोलन में महिलाओं के योगदान की बात करें तो बागेश्वर की बिशनी देवी शाह का नाम शीर्ष पंक्ति में विराजमान है। बिशनी देवी उत्तराखंड की पहली महिला थीं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया था। लेकिन पहाड़ सी मजबूत बिश्नी देवी जेल में बिल्कुल भी विचलित नहीं हुईं।


जेल में वह प्रचलित गीत की पंक्तियां दोहराती थी–
“जेल ना समझो बिरादर, जेल जाने के लिये
कृष्ण का मंदिर है, प्रसाद पाने के लिए”
बिशनी देवी साह – स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला
उनसे प्रेरित दुर्गादेवी, भक्तिदेवी, कुंतीदेवी, जीवंती देवी, भगीरथी देवी और रेवती देवी जैसी अनेक नारियां आजादी के आंदोलन में कूद पड़ीं। आचार्य नरेंद्रदेव, पं. जवाहरलाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित जैसे नेताओं की प्रेरणा के बल पर बिशनी देवी जैसी महिलाएं जेल जाने से नहीं हिचकीं। आजादी के प्रतीक ध्वज को सरकारी भवनों या सार्वजनिक स्थलों पर फहराना उनकी मुहिम का अहम हिस्सा था। देश में खादी का प्रचार करते हुए महिलाओं को स्वावलंबी बनाने की बड़ी मुहिम भी बिशनी देवी शाह ने चलाई। युगों से शौर्य, साहस और बुद्धिमत्ता की प्रतीक रही उत्तराखंड की नारी समय के साथ कदमताल करते हुए आज भी नई-नई उपलब्धियां अपने खाते दर्ज कर रही हैं। ऐसे में समय की मांग है कि गांवों में रह रही अभावग्रस्त मातृशक्ति के हित में सरकार और समाजसेवियों द्वारा उसी ईमानदारी से पहल हो जैसी आजादी से पहले या उसके बाद के शुरुआती दौर में हो रही थी। परिस्थितियां थोड़ा भी अनुकूल हुईं तो पलायन के भयावह संकट पर भी काबू पाने का माद्दा रखती है उत्तराखंड की नारी। विषम आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों ने यदि यहां नारी के जीने की राह मुश्किल की है तो उनसे लड़ने का हौसला भी दिया है।

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