उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं "कबूतरी देवी" Famous Women of Uttarakhand "Kabutari Devi"
उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं "कबूतरी देवी" Famous Women of Uttarakhand "Kabutari Devi"
कबूतरी देवी
कबूतरी देवी का संबंध किससे है?
कबूतरी देवी (1945 - 7 जुलाई 2018), एक भारतीय उत्तराखंडी लोकगायिका थीं। उन्होंने उत्तराखंड के
लोक गीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रसारित किया था। सत्तर
के दशक में उन्होंने रेडियो जगत में अपने लोकगीतों को नई पहचान दिलाई। उन्होंने
आकाशवाणी के लिए लगभग 100 से अधिक गीत गाए।
उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं "कबूतरी देवी" Famous Women of Uttarakhand "Kabutari Devi" |
प्रारंभिक जीवन
कबूतरी का जन्म 1945 में काली-कुमाऊं (चम्पावत जिले) के एक मिरासी (लोक गायक) परिवार् में हुआ था। संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने गांव के देब राम और देवकी देवी और अपने पिता श्री रामकाली जी से ली, जो उस समय के एक प्रख्यात लोक गायक थे। लोक गायन की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही ली। वे मूल रुप से सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के मूनाकोट ब्लाक के क्वीतड़ गांव की निवासी थीं, जहां तक पहुंचने के लिये आज भी अड़किनी से 6 कि०मी० पैदल चलना पड़ता है। कबूतरी देवी ने लोक गायन की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही ली। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त होने वाले रागों का निरन्तर अभ्यास करने के कारण इनकी शैली अन्य गायिकाओं से अलग है। विवाह के बाद इनके पति श्री दीवानी राम जी ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और इन्हें आकाशवाणी और स्थानीय मेलों में गाने के लिये प्रेरित किया। उस समय तक कोई भी महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिये नहीं गाती थीं। उन्होंने पहली बार उत्तराखंड के लोकगीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रचारित किया था। 70-80 के दशक में नजीबाबाद और लखनऊ आकाशवाणी से प्रसारित कुमांऊनी गीतों के कार्यक्रम से उनकी ख्याति बढ़ी। उन्होने पर्वतीय लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था। उन्होने आकाशवाणी के लिए करीब 100 से अधिक गीत गाए। उन्हें उत्तराखण्ड की तीजन बाई कहा जाता है। जीवन के 20 साल गरीबी में बिताने के बाद 2002 से उनकी प्रतिभा को सम्मान मिलना शुरू हुआ पहाड़ी संगीत की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में पारंगत कबूतरी देवी मंगल गीत, ऋतु रैण, पहाड़ के प्रवासी के दर्द, कृषि गीत, पर्वतीय पर्यावरण, पर्वतीय सौंदर्य की अभिव्यक्ति, भगनौल न्यौली जागर, घनेली झोड़ा और चांचरी प्रमुख रूप से गाती थी।कबूतरी देवी: पहाड़ के गांव से रेडियो स्टूडियो तक का सफर
उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं "कबूतरी देवी" Famous Women of Uttarakhand "Kabutari Devi" |
पांच जुलाई 2018 को अस्थमा व हार्ट की दिक्कत के बाद रात्रि एक बजे कबूतरी देवी को पिथौरागढ़ के जिला अस्पताल में दाखिल करवाया गया था।[5] उनकी बिगड़ती हालत को देखकर 6 जुलाई को डॉक्टरों ने देहरादून हायर सेंटर रेफर किया था। लेकिन धारचूला से हवाई पट्टी पर हेलीकॉप्टर के न पहुंच पाने के कारण वह इलाज के लिए हायर सेंटर नहीं जा पाई पहाड़ी लोकगीतों के जरिए कानों में मिश्री घोलने वालीं लोकगायिका कबूतरी देवी ने उस जमाने में संगीत में करियर शुरू किया जब महिलाएं घरों से निकलती नहीं थीं। 70-80 के दशक में आकाशवाणी के नजीबाबाद और लखनऊ केंद्र से कबूतरी देवी गढ़वाली लोक गीतों को घर-घर तक पहुंचाती थीं। बता दें कि शनिवार सुबह उत्तराखंड की मशहूर फनकार कबूतरी देवी का निधन हो गया।उन्हें सांस की समस्या थी और पिथौरागढ़ के जिला अस्पताल में भर्ती थी। उन्हें देहरादून ले जाने के लिए शुक्रवार शाम से हेलिकॉप्टर का इंतजार होता रहा। हेलिकॉप्टर की व्यवस्था नहीं होने से और बेहतर इलाज के अभाव में शनिवार को उन्होंने दम तोड़ दिया।
कई पुरस्कार से हुईं सम्मानितबाद में पति की मौत हो गई तो उन्होंने आकाशवाणी और कार्यक्रमों में गाना बंद कर दिया था। उन्होंने अपने जीवन के कई साल अभावों में गुजारे। साल 2002 में , पिथौरागढ़ के नवोदय पर्वतीय कला केन्द्र ने उन्हें छोलिया महोत्सव में बुलाकर सम्मानित किया था। अल्मोड़ा के लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति ने भी उन्हें सम्मानित किया
कबूतरी देवी जी ने जो भी गीत गाये वे दादी-नानी से विरासत में मिले प्रकृति से संबंधित लोकगीत थे। अर्थात पहाड के आम जनमानस में बसे लोकगीतॊं को पहली बार उन्होंने बाहर निकाला। उन्होंने आकाशवाणी के लिये लगभग १०० से अधिक गीत गाये, उनके गीत आकाशवाणी के रामपुर, लखनऊ, नजीबाबाद और चर्चगेट, मुंबई के केन्द्रों से प्रसारित हुये। उन दिनों उन्हें इन केन्द्रों तक उनके पति लेकर जाते थे, जिन्हें वे नेताजी कहकर पुकारती हैं और एक गीत की रिकार्डिंग के उन्हें २५ से ५० रुपये मिलते थे। अपने पति की मृत्यु की बाद इन्होंने आकाशवाणी के लिये और समारोहों के लिये गाना बन्द कर दिया था। इस बीच इनका एक मात्र पुत्र पहाड़ की नियतिनुसार पलायन कर गया और शहर का ही होकर रह गया। लेकिन पहाड़ को मन में बसाये कबूतरी जी को पहाड से बाहर जाना गवारा नहीं था।
इस कारण उन्होंने अपने २० साल अभावों में गुजारें, वर्ष २००२ में नवोदय पर्वतीय कला केन्द्र, पिथौरागढ़ ने उन्हें छोलिया महोत्सव में बुलाकर सम्मानित किया तथा लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति ने अल्मोड़ा में सम्मानित किया। इसके अलावा इन्हें पहाड संस्था ने सम्मानित किया। अब उत्तराखण्ड का संस्कृति विभाग भी उन्हें १००० रुपये प्रतिमाह पेंशन दे रहा है। कबूतरी जी वर्तमान में पिथौरागढ़ में अपनी पुत्री के साथ रह रहीं है।
इस दौरान उनकी हालत बिगड़ गई और उन्हें वापस जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया, जिसके बाद अगले दिन सुबह 10:24 बजे उनका निधन हो गया। 8 जुलाई 2018 को रामेश्वर घाट में सरयू नदी के किनारे उनकी अंत्येष्टि की गई।
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