उत्तराखण्ड के नशामुक्ति आन्दोलन की पुरोधा: टिंचरी माई (uttarakhand ke nashamukti andolan ki purodha: tinchery mai)

उत्तराखण्ड के नशामुक्ति आन्दोलन की पुरोधा: टिंचरी माई

नशामुक्ति आन्दोलन की पुरोधा: टिंचरी माई

नशा हमेशा से ही उत्तराखण्ड की प्रमुख समस्या रहा है. उत्तराखण्ड की जनता इस असमाधेय समस्या के खिलाफ समय-समय पर उठ खड़ी होती है. आज भी शराब के ठेकों की नीलामी के समय समूचा पहाड़ शराब माफियाओं और राजनेताओं के गठजोड़ के खिलाफ लामबंद दिखाई देता है. राज्य में कई उल्लेखनीय नशामुक्ति आन्दोलन हुए हैं. इन आंदोलनों ने कई ऐसे व्यक्तित्वों को नायकों के रूप में उभारा है जिन्हें आज भी याद किया जाता है. नशामुक्ति आन्दोलन इनसे आज भी प्रेरणा लेने का काम करते हैं. ऐसा ही एक नाम है टिंचरी माई.

दीपा नौटियाल उर्फ़ टिंचरी माई का जन्म 1917 में ग्राम मंज्युर, तहसील थलीसैण, पौड़ी-गढ़वाल के एक गरीब परिवार में हुआ था. जिंदगी ने दीपा की नियति में कई कड़े इम्तहान तय किये थे. 2 साल की उम्र में दीपा ने अपनी माँ को खो दिया. इससे पहले कि दीपा माँ और उसकी ममता जैसे शब्दों से परिचित होती. उन भावों के अपनी जिंदगी में न होने के अर्थ को समझ पाती, महसूस कर पाती, उनके पिता भी इस दुनिया में नहीं रहे. इस समय दीपा मात्र पांच साल की थी.

ये वो दौर था जब लड़कियों की स्कूली शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जाता था. फिर दीपा तो उन पहाड़ों में रहने वाली थी जहाँ तब लड़कों की पढ़ाई भी दूर की कौड़ी हुआ करती थी. बाल-विवाह उन दिनों एक सामान्य भारतीय रिवाज था. लड़कियों को बचपन में ही ब्याह दिया जाता था. माता-पिता की मृत्यु के बाद दीपा के दयालु चाचा ने उनकी परवरिश की और उस वक़्त के सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उनका बाल-विवाह कर दिया. इस समय दीपा की उम्र मात्र 7 साल थी. सेना में सिपाही गणेश राम उनका पति हुआ, जो दीपा से उम्र में 17 साल बड़ा था. दीपा की खुशकिस्मती कि उन्हें गणेश के रूप में एक अच्छा और समझदार पति मिला. गणेश उस वक़्त ब्रिटिश आर्मी के लिए रावलपिंडी में तैनात थे. उन्होंने दीपा को एक बच्ची की तरह से प्यार-दुलार दिया. ड्यूटी में जाने से पहले गणेश दीपा को अपने हाथों से नहलाते-धुलाते और तैयार करते थे. लावारिस बचपन जीने के बाद अब दीपा का बाकी का बचपन और किशोरावस्था अपने पति के साथ ठीक-ठाक मजे में कट रहे थे.

वक़्त का अगला इम्तहान दीपा के लिए तय था सो उनके पति विश्व युद्ध में मारे गए. इस समय दीपा 19 साल की थी. किशोरावस्था में ही दीपा न सिर्फ विधवा हो गयी थी बल्कि अब उनका इस दुनिया में कोई नहीं था. न माता-पिता न पति. डिविजन अफसर ने दीपा को अपने पति का पैसा ले जाने के लिए बुलाया. पैसा दीपा को सौंप दिया गया. अब दीपा के पास इतना पैसा था कि वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू कर सके. लेकिन सवाल यह था कि दीपा जाये तो कहाँ जाए.

इस मुश्किल वक़्त में दीपा ने आत्मनिर्भर बनने का फैसला लिया और लैंसडाउन आ गयी. एक ब्रिटिश अफसर ने सेना से प्राप्त धनराशि को यहाँ के एक पोस्ट ऑफिस में जमा करवा दिया और एक ग्राम प्रधान को जिम्मेदारी दी की वह दीपा को उसके ससुरालियों के पास पहुंचा दे. ससुराल में कोई भी नहीं चाहता था कि दीपा यहाँ रहे लिहाजा यहाँ उसके साथ दुर्वयवहार होने लगा. उस समय यूँ भी विधवाओं के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार किया जाता था. उन्हें घरों से भगा दिया जाता, वे यहाँ-वहां भटककर खानाबदोश जिंदगी जीतीं या फिर घुट-घुटकर मर जातीं. लेकिन जिजीविषा का ही दूसरा नाम दीपा था. हर बार पटककर गिरा दिए जाने के बाद दोबारा तनकर खड़ी होने वाली दीपा.

ससुराल के उत्पीड़न से तंग आकर दीपा ने अपना ससुराल छोड़ने का फैसला किया और लाहौर आ गयी. लाहौर में वे एक मंदिर में आश्रय लेकर रहने लगीं. यहाँ दीपा की जिंदगी का एक नया अध्याय लिखा जाना था. यहाँ दीपा की मुलाकात एक सन्यासिन से हुई और उसके सानिध्य में दीपा ने संन्यास लेने का फैसला किया. संन्यास ने दीपा को नया नाम दिया –इच्छागिरी माई.

1947 में इच्छागिरी माई बन चुकी दीपा हरिद्वार आ पहुंची. यहाँ वह चंडीघाट में रहने लगीं. यहाँ रहते हुए इच्छागिरी माई ने पाया कि साधू-संत, सन्यासी अफीम, दम-दारू के नशे समेत कई व्यसनों में डूबे हुए हैं. दीपा को यह देखकर बहुत अफ़सोस हुआ कि जिन साधू-महात्माओं में लोगों की गहन आस्था है वे ही व्यसनी, कुकर्मी हैं. उन्होंने भक्तों-श्रद्धालुओं के सामने इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश करने का निश्चय किया. यहाँ से उनके जीवन की नयी भूमिका शुरू होने वाली थी. माई अकेली थी और उनके दुश्मनों की तादाद काफी ज्यादा थी और वे एकजुट भी थे. इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश कर वे यहाँ से कोटद्वार के लिए चल पड़ी.

कोटद्वार के भाबर सिगड़ी गाँव में उन्होंने उन्होंने अपने हाथों से कुटिया बनायी और उसमें रहने लगीं. जल्द ही माई का सामना इस गाँव के भीषण जल संकट से हुआ. गाँव की महिलाओं को पानी लाने के लिए बहुत दूर-दूर जाना पड़ता था. अब माई ने गाँव के जल संकट को ख़त्म करने को ही अपना मिशन बना लिया. वे इस समस्या के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने लगीं. किसी ने भी उनकी सुनवाई नहीं की. इसके बाद माई ने वह किया जिसके लिए आज भी अच्छे-अच्छों की हिम्मत नहीं पड़ सकती है.

साधारण सी पहाड़ी महिला ने असाधारण काम कर दिखाया. माई गढ़वाल से दिल्ली पहुंची और वहां प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आवास पर धमक गयीं. अपनी समस्या के समाधान के लिए वे प्रधानमन्त्री आवास के बाहर बैठ गयीं. जब नेहरू अपने कार्यालय जाने के लिए बाहर निकलकर कार में बैठे तो माई उनकी कार के रास्ते में बैठ गयीं. एक ड्यूटी पर तैनात हैरान-परेशान पुलिस वाले ने जब माई को रास्ते से हटाने के लिए घसीटना शुरू किया तो नेहरू ने उसे ऐसा करने से रोका. नेहरू कार से नीचे उतरे और उन्होंने माई की समस्या सुनी. इस दौरान लम्बी यात्रा और थकान की वजह से इच्छागिरी माई को काफी तेज बुखार भी था. नेहरू ने जब उनका हाथ अपने हाथ में लिया तो उन्हें माई को बुखार के बारे में पता लगा. उन्होंने माई से अस्पताल जाने का आग्रह कर उन्हें वहां भेजने के बंदोबस्त के लिए कहा. माई ने इसके लिए साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा जब तक उनके गाँव की पानी की समस्या का समाधान नहीं किया जाता वे कहीं जाने वाली नहीं हैं. नेहरू ने उनकी समस्या का समाधान करने का वादा किया और निभाया भी. कुछ ही दिनों में इस गाँव में पानी की सप्लाई शुरू कर दी गयी.

यायावर माई भला एक गाँव में कहाँ टिकने वाली थीं. वे यहाँ से मोटाढाक चली गयीं. यहां एक शिक्षक ने उन्हें आसरा दिया. शिक्षक से ही माई को जानकारी मिली की गाँव में कोई प्राथमिक विद्यालय तक नहीं है इस वजह से बच्चों को लम्बी दूरी तय कर स्कूल जाना पड़ता है. प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित माई से बेहतर शिक्षा के महत्त्व को भला और कौन समझ सकता था, उन्होंने खुद के पास जमा रकम से गाँव में विद्यालय का निर्माण शुरू करवा दिया. इसके लिए उन्होंने चंदा कर रुपया भी जमा किया. 6 महीने में ही गाँव के बच्चों के लिए स्कूल बनकर तैयार हो गया. इच्छागिरी माई ने अपने मरहूम पति के नाम का पत्थर का पट्ट विद्यालय में लगवाया. उनके द्वारा स्थापित यह प्राथमिक विद्यालय बाद में इंटरमीडिएट स्कूल बना.

अब माई एक दफा फिर नए सफ़र पर निकल पड़ीं नयी चुनौतियाँ चुनने. उनका अगला पड़ाव था बद्रीनाथ. यहाँ कुछ दिनों के प्रवास के बाद वे केदारनाथ के लिए चल पड़ीं. यहाँ वह चार सालों के अध्यात्मिक प्रवास पर रहीं. चार साल बाद वे पौड़ी चली आयीं. यहाँ एक वन विभाग के कंजरवेटर का घर उनका ठिकाना बना. यहाँ माई एक दिन पोस्ट ऑफिस के बाहर बैठी थीं, तभी उन्होंने देखा कि एक दुकान से नशे में टुन्न शख्स बाहर निकला. इसी वक़्त महिलाओं का एक समूह अपने रोजमर्रा की दिनचर्या में जलावन की लकड़ी और जानवरों का चारा लेने जंगल की ओर जा रहा था. इन्हें देखकर वह नशेड़ी फब्तियां कसने और गाली देने लगा. यह देखकर माई उस अवैध नशे के कारोबारी की शिकायत करने डिप्टी कमिश्नर के पास पहुँच गयीं और उसे समस्या के बारे में बताया. डिप्टी कमिश्नर उन्हें अपने जीप पर बिठाकर मौके पर पहुंचा. माई ने उसे नशे के फलते-फूलते अवैध कारोबार के बारे में बताया. उन दिनों यह क्षेत्र नशाबंदी के प्रभाव में था और नशे के लिए आयुर्वेदिक दवाओं की ज्यादा मात्र का इस्तेमाल किया जाता था. ऐसी ही एक आयुर्वेदिक सिरप को टिंचरी कहा जाता था. इस सिरप की ओवरडोज साइड इफेक्ट के रूप में दारू सा नशा देती थी. डिप्टी कमिश्नर ने मौके पर सब देखने के बाद भी न कोई कार्रवाई की न ही किसी से कुछ कहा ही. वह वहां से खिसक गया.

नशा हमेशा से ही उत्तराखण्ड की प्रमुख समस्या रहा है. उत्तराखण्ड की जनता इस असमाधेय समस्या के खिलाफ समय-समय पर उठ खड़ी होती है. आज भी शराब के ठेकों की नीलामी के समय समूचा पहाड़ शराब माफियाओं और राजनेताओं के गठजोड़ के खिलाफ लामबंद दिखाई देता है. राज्य में कई उल्लेखनीय नशामुक्ति आन्दोलन हुए हैं. इन आंदोलनों ने कई ऐसे व्यक्तित्वों को नायकों के रूप में उभारा है जिन्हें आज भी याद किया जाता है. नशामुक्ति आन्दोलन इनसे आज भी प्रेरणा लेने का काम करते हैं. ऐसा ही एक नाम है टिंचरी माई.

दीपा नौटियाल उर्फ़ टिंचरी माई का जन्म 1917 में ग्राम मंज्युर, तहसील थलीसैण, पौड़ी-गढ़वाल के एक गरीब परिवार में हुआ था. जिंदगी ने दीपा की नियति में कई कड़े इम्तहान तय किये थे. 2 साल की उम्र में दीपा ने अपनी माँ को खो दिया. इससे पहले कि दीपा माँ और उसकी ममता जैसे शब्दों से परिचित होती. उन भावों के अपनी जिंदगी में न होने के अर्थ को समझ पाती, महसूस कर पाती, उनके पिता भी इस दुनिया में नहीं रहे. इस समय दीपा मात्र पांच साल की थी.

ये वो दौर था जब लड़कियों की स्कूली शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जाता था. फिर दीपा तो उन पहाड़ों में रहने वाली थी जहाँ तब लड़कों की पढ़ाई भी दूर की कौड़ी हुआ करती थी. बाल-विवाह उन दिनों एक सामान्य भारतीय रिवाज था. लड़कियों को बचपन में ही ब्याह दिया जाता था. माता-पिता की मृत्यु के बाद दीपा के दयालु चाचा ने उनकी परवरिश की और उस वक़्त के सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उनका बाल-विवाह कर दिया. इस समय दीपा की उम्र मात्र 7 साल थी. सेना में सिपाही गणेश राम उनका पति हुआ, जो दीपा से उम्र में 17 साल बड़ा था. दीपा की खुशकिस्मती कि उन्हें गणेश के रूप में एक अच्छा और समझदार पति मिला. गणेश उस वक़्त ब्रिटिश आर्मी के लिए रावलपिंडी में तैनात थे. उन्होंने दीपा को एक बच्ची की तरह से प्यार-दुलार दिया. ड्यूटी में जाने से पहले गणेश दीपा को अपने हाथों से नहलाते-धुलाते और तैयार करते थे. लावारिस बचपन जीने के बाद अब दीपा का बाकी का बचपन और किशोरावस्था अपने पति के साथ ठीक-ठाक मजे में कट रहे थे.

वक़्त का अगला इम्तहान दीपा के लिए तय था सो उनके पति विश्व युद्ध में मारे गए. इस समय दीपा 19 साल की थी. किशोरावस्था में ही दीपा न सिर्फ विधवा हो गयी थी बल्कि अब उनका इस दुनिया में कोई नहीं था. न माता-पिता न पति. डिविजन अफसर ने दीपा को अपने पति का पैसा ले जाने के लिए बुलाया. पैसा दीपा को सौंप दिया गया. अब दीपा के पास इतना पैसा था कि वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू कर सके. लेकिन सवाल यह था कि दीपा जाये तो कहाँ जाए.
नशामुक्ति आन्दोलन की पुरोधा: टिंचरी माई

इस मुश्किल वक़्त में दीपा ने आत्मनिर्भर बनने का फैसला लिया और लैंसडाउन आ गयी. एक ब्रिटिश अफसर ने सेना से प्राप्त धनराशि को यहाँ के एक पोस्ट ऑफिस में जमा करवा दिया और एक ग्राम प्रधान को जिम्मेदारी दी की वह दीपा को उसके ससुरालियों के पास पहुंचा दे. ससुराल में कोई भी नहीं चाहता था कि दीपा यहाँ रहे लिहाजा यहाँ उसके साथ दुर्वयवहार होने लगा. उस समय यूँ भी विधवाओं के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार किया जाता था. उन्हें घरों से भगा दिया जाता, वे यहाँ-वहां भटककर खानाबदोश जिंदगी जीतीं या फिर घुट-घुटकर मर जातीं. लेकिन जिजीविषा का ही दूसरा नाम दीपा था. हर बार पटककर गिरा दिए जाने के बाद दोबारा तनकर खड़ी होने वाली दीपा.

ससुराल के उत्पीड़न से तंग आकर दीपा ने अपना ससुराल छोड़ने का फैसला किया और लाहौर आ गयी. लाहौर में वे एक मंदिर में आश्रय लेकर रहने लगीं. यहाँ दीपा की जिंदगी का एक नया अध्याय लिखा जाना था. यहाँ दीपा की मुलाकात एक सन्यासिन से हुई और उसके सानिध्य में दीपा ने संन्यास लेने का फैसला किया. संन्यास ने दीपा को नया नाम दिया –इच्छागिरी माई.

1947 में इच्छागिरी माई बन चुकी दीपा हरिद्वार आ पहुंची. यहाँ वह चंडीघाट में रहने लगीं. यहाँ रहते हुए इच्छागिरी माई ने पाया कि साधू-संत, सन्यासी अफीम, दम-दारू के नशे समेत कई व्यसनों में डूबे हुए हैं. दीपा को यह देखकर बहुत अफ़सोस हुआ कि जिन साधू-महात्माओं में लोगों की गहन आस्था है वे ही व्यसनी, कुकर्मी हैं. उन्होंने भक्तों-श्रद्धालुओं के सामने इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश करने का निश्चय किया. यहाँ से उनके जीवन की नयी भूमिका शुरू होने वाली थी. माई अकेली थी और उनके दुश्मनों की तादाद काफी ज्यादा थी और वे एकजुट भी थे. इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश कर वे यहाँ से कोटद्वार के लिए चल पड़ी.

कोटद्वार के भाबर सिगड़ी गाँव में उन्होंने उन्होंने अपने हाथों से कुटिया बनायी और उसमें रहने लगीं. जल्द ही माई का सामना इस गाँव के भीषण जल संकट से हुआ. गाँव की महिलाओं को पानी लाने के लिए बहुत दूर-दूर जाना पड़ता था. अब माई ने गाँव के जल संकट को ख़त्म करने को ही अपना मिशन बना लिया. वे इस समस्या के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने लगीं. किसी ने भी उनकी सुनवाई नहीं की. इसके बाद माई ने वह किया जिसके लिए आज भी अच्छे-अच्छों की हिम्मत नहीं पड़ सकती है.

साधारण सी पहाड़ी महिला ने असाधारण काम कर दिखाया. माई गढ़वाल से दिल्ली पहुंची और वहां प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आवास पर धमक गयीं. अपनी समस्या के समाधान के लिए वे प्रधानमन्त्री आवास के बाहर बैठ गयीं. जब नेहरू अपने कार्यालय जाने के लिए बाहर निकलकर कार में बैठे तो माई उनकी कार के रास्ते में बैठ गयीं. एक ड्यूटी पर तैनात हैरान-परेशान पुलिस वाले ने जब माई को रास्ते से हटाने के लिए घसीटना शुरू किया तो नेहरू ने उसे ऐसा करने से रोका. नेहरू कार से नीचे उतरे और उन्होंने माई की समस्या सुनी. इस दौरान लम्बी यात्रा और थकान की वजह से इच्छागिरी माई को काफी तेज बुखार भी था. नेहरू ने जब उनका हाथ अपने हाथ में लिया तो उन्हें माई को बुखार के बारे में पता लगा. उन्होंने माई से अस्पताल जाने का आग्रह कर उन्हें वहां भेजने के बंदोबस्त के लिए कहा. माई ने इसके लिए साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा जब तक उनके गाँव की पानी की समस्या का समाधान नहीं किया जाता वे कहीं जाने वाली नहीं हैं. नेहरू ने उनकी समस्या का समाधान करने का वादा किया और निभाया भी. कुछ ही दिनों में इस गाँव में पानी की सप्लाई शुरू कर दी गयी.

यायावर माई भला एक गाँव में कहाँ टिकने वाली थीं. वे यहाँ से मोटाढाक चली गयीं. यहां एक शिक्षक ने उन्हें आसरा दिया. शिक्षक से ही माई को जानकारी मिली की गाँव में कोई प्राथमिक विद्यालय तक नहीं है इस वजह से बच्चों को लम्बी दूरी तय कर स्कूल जाना पड़ता है. प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित माई से बेहतर शिक्षा के महत्त्व को भला और कौन समझ सकता था, उन्होंने खुद के पास जमा रकम से गाँव में विद्यालय का निर्माण शुरू करवा दिया. इसके लिए उन्होंने चंदा कर रुपया भी जमा किया. 6 महीने में ही गाँव के बच्चों के लिए स्कूल बनकर तैयार हो गया. इच्छागिरी माई ने अपने मरहूम पति के नाम का पत्थर का पट्ट विद्यालय में लगवाया. उनके द्वारा स्थापित यह प्राथमिक विद्यालय बाद में इंटरमीडिएट स्कूल बना.

अब माई एक दफा फिर नए सफ़र पर निकल पड़ीं नयी चुनौतियाँ चुनने. उनका अगला पड़ाव था बद्रीनाथ. यहाँ कुछ दिनों के प्रवास के बाद वे केदारनाथ के लिए चल पड़ीं. यहाँ वह चार सालों के अध्यात्मिक प्रवास पर रहीं. चार साल बाद वे पौड़ी चली आयीं. यहाँ एक वन विभाग के कंजरवेटर का घर उनका ठिकाना बना. यहाँ माई एक दिन पोस्ट ऑफिस के बाहर बैठी थीं, तभी उन्होंने देखा कि एक दुकान से नशे में टुन्न शख्स बाहर निकला. इसी वक़्त महिलाओं का एक समूह अपने रोजमर्रा की दिनचर्या में जलावन की लकड़ी और जानवरों का चारा लेने जंगल की ओर जा रहा था. इन्हें देखकर वह नशेड़ी फब्तियां कसने और गाली देने लगा. यह देखकर माई उस अवैध नशे के कारोबारी की शिकायत करने डिप्टी कमिश्नर के पास पहुँच गयीं और उसे समस्या के बारे में बताया. डिप्टी कमिश्नर उन्हें अपने जीप पर बिठाकर मौके पर पहुंचा. माई ने उसे नशे के फलते-फूलते अवैध कारोबार के बारे में बताया. उन दिनों यह क्षेत्र नशाबंदी के प्रभाव में था और नशे के लिए आयुर्वेदिक दवाओं की ज्यादा मात्र का इस्तेमाल किया जाता था. ऐसी ही एक आयुर्वेदिक सिरप को टिंचरी कहा जाता था. इस सिरप की ओवरडोज साइड इफेक्ट के रूप में दारू सा नशा देती थी. डिप्टी कमिश्नर ने मौके पर सब देखने के बाद भी न कोई कार्रवाई की न ही किसी से कुछ कहा ही. वह वहां से खिसक गया.

क्रोधित माई ने मिट्टी का तेल और माचिस ली दुकान को आग लगाकर फूंक

क्रोधित माई ने मिट्टी का तेल और माचिस ली और और उस दुकान में धमक गयी जहाँ नशे का काला कारोबार चल रहा था. इस समय तक दुकान भीतर से बंद कर दी गयी थी. माई ने पत्थर की सहायता से दरवाजा तोड़ डाला. यह देखकर वहां भीतर बैठा शख्स भाग खडा हुआ. उसके बाद माई ने दुकान को आग लगाकर फूंक दिया. कुछ ही मिनटों में दुकान ख़ाक हो गयी. इसके बाद माई पुनः डिप्टी कमिश्नर के पास पहुंची और उसे घटना की पूरा जानकारी देकर खुद को गिरफ्तार करने के लिए कहा. उन्हें गिरफ्तार करने के बजाय उनके ही घर पर नजरबन्द कर अगली शाम लैंसडाउन ले जाकर छोड़ दिया गया.

इच्छागिरि माई टिंचरी माई.

इस घटना ने माई को एक नया मिशन दे दिया नशे के खिलाफ लड़ाई का, और इच्छागिरि माई बन गई टिंचरी माई.
उन दिनों शराबी पहाड़ में नशे के लिए टिंचरी-टिक्चर जिन्जरवाइटिस, जो कि एक दवाई है तथा सस्ते में उपलब्ध थी, पीते थे. टिचरी का गढ़वाल की महिलाओं में आतंक था. बाहर निकले तो शराबी परेशान करें. घर में पति, भाई, बेटा शराबी है तो चैन नहीं. कमाई फूंक दें. बरतन जमीन बेच दें – बच्चे भूखे मरें. इस घटना के बाद से गढवाल की महिलाओं को टिंचरी के खिलाफ जबान मिल गई. टिंचरी माई बन गई संघर्ष का प्रतीक. गाँव-गाँव से महिलाएँ टिंचरी माई से मिलने आती – टिंचरी माई जगह-जगह अवैध-वैध दुकान बंद कराने निकल पड़ती-दुकानों के आगे धरने, पिकेटिंग होने लगे. जहाँ टिंचरी माई के पहुँचने की खबर होती, शराबी या शराब बेचने वाले अपनी सलामती के लिए भागते फिरे।

महिलाएँ माई से अनुरोध करती- 

“हमारे गाँव आओ- शराब भगाओ” शराबी, शराब बेचने वाले या उनका साथ देने वाले सफेद पोश कहते – “सन्यास का मतलब है- समाज से मुँह मोड़ो. सन्यास लिया है तो लड़ाई-झगड़ा क्यों करती है – शराबी-टिंचरी से क्या मतलब, जंगल में रहो.”

संघर्ष जारी रहा 

छठे तथा सातवें दशक के शुरु में टिंचरी माई के आन्दोलन ने शराबखोरों व शराब बेचने वालों के हौसले पस्त कर दिए. जून की गर्मियों में भावर में घूमती तो जनवरी की बर्फ में चमोली- उत्तरकाशी नंगे पैरों से . महिलाओं को साथ लेकर संघर्षरत रहती . टिंचरी आन्दोलन के साथ-साथ समाज में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, उनमें आत्मविश्वास भरने के लिए वे उन्हें पढ़ने-लिखने, सिलाई-कढ़ाई सीखने के लिए प्रेरित करती उन्हें दहेज के खिलाफ तैयार करती रही.
बढ़ती उम्र, संघर्ष ने माई को शरीर से जर्जर कर दिया तो वह गूलर झाला के जंगल में कुटिया बनाकर अकेली रहने लगी . 

जून 1993 के अन्तिम सप्ताह में सिगड्डी के एक परिचित ने खबर दी कि सत्रह जून को माई चल बसी. अनपेक्षित समाचार से हतप्रभ रह गया. कैसे मर गई माई. अरे कितनी वृद्ध हो गई थी- कितनी कमजोर, तुमने तो देखा ही था, परिचित ने कहा मुझसे. का पर माई तो कभी मुझे वृद्ध लगी नहीं- न कभी कमजोर. उनके मन, कर्म, वचन की आभा ने तो मुझे उनके कृश शरीर को देखने ही नहीं दिया था. एक रिक्तता काफी समय तक घेरे रही.

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