रानी कर्णावती की कहानी और इतिहास...(Story and History of Rani Karnavati)
इस रानी के आगे मुगलों को कटानी पड़ी नाक, जाने रानी कर्णावती की कहानी और इतिहास...
देहरादून में राजपुर नहर बहती है। कहते हैं कि इसे 17वीं शताब्दी के तीसरे दशक में गढ़वाल की महारानी रानी कर्णावती गढ़वाल ने बनवाया। इस नहर के साथ ही महारानी की पहचान है उनका पराक्रम, जिसके आगे मुग़लों ने घुटने टेके, रानी कणावती इतिहास में तभी से 'नाक कट्टी राणी' के नाम से विख्यात हो गई।
महारानी कर्णावती की कहानी शुरू होती है उनके पति और गढ़वाल के राजा महिपत शाह की असमय मृत्यु के बाद। महिपत ने वर्ष 1622 में राजा श्याम शाह के अलकनंदा में डूबकर मर जाने के बाद गद्दी संभाली थी। बहादुर और योद्धा माने जाने वाले महिपत ने मुग़लों की सत्ता को चुनौती देने के अलावा तिब्बत जैसी मुश्किल भूमि पर भी तीन बार आक्रमण किया। नौ वर्ष तक राज करने के बाद 1631 में रणभूमि में ही उनकी मौत हो गई। तब उनका बेटा पृथ्वीपत शाह था कुल सात बरस का। ज़ाहिर है, राजकाज संभालने का ज़िम्मा उत्तराखंड रानी कर्णावती के हिस्से आया।
हिमाचल के एक राजपरिवार से ताल्लुक रखने वाली कर्णावती को शासन करने की कला घुट्टी में पिलाई गई थी। उन्होंने देहरादून और मसूरी जैसी जगहों के अलावा समूचे राज्य में कृषि और सामाजिक कल्याण के अनेक कामों को अंजाम दिया।
लेकिन, तब किसी भी राज्य में स्त्री द्वारा शासन किए जाने को एक बड़ी कमजोरी के रूप में देखा जाता था। मुश्किल हो जाता था ऐसे राज्य का शत्रु की निगाहों से बचना। बताया जाता है कि तत्कालीन कुमाऊंनी राजा बाजबहादुर चंद के मुग़लों से अच्छे संबंध थे। उसने कांगड़ा में नियुक्त मुग़ल अधिकारी नजाबत खान से कहा कि गढ़वाल पर आक्रमण करने का इससे बेहतर समय और नहीं हो सकता। बाजबहादुर ने वादा किया कि वह और सिरमौर का राजा उस आक्रमण में मुग़लों का साथ देंगे।
बात नजाबत खां को जंच गई। उसने मुग़ल बादशाह शाहजहां को आक्रमण के लिए तैयार कर लिया। 30 हज़ार सैनिकों को लेकर नजाबत खान ने गंगा नदी पार की और देहरादून के समीप रायवाला नामक जगह पर अपने खेमे गाड़े। यह बात है वर्ष 1635 की।
रानी कर्णावती तक मुग़ल बादशाह का संदेश भेजा गया, या तो 10 लाख रुपये का नज़राना अता करो या एक बड़े आक्रमण के लिए तैयार रहो। भाग्यवश रानी के दरबार में माधोसिंह भंडारी, दौलत बेग और बनवारीदास जैसे नामी और अनुभवी सलाहकार और मंत्री थे। उन्हें मुग़ल आक्रमण की पल-पल की ख़बर थी।
रानी ने अपने इन सलाहकारों के कहने पर एक लाख रुपये तुरंत देकर बाकी रक़म शीघ्र देने का वादा कर दिया। हालांकि बची रक़म भेजी नहीं। इससे क्रुद्ध होकर मुग़ल सेनापति नजाबत खान ने फ़ौज को लेकर श्रीनगर की तरफ बढ़ना शुरू किया। श्रीनगर में गढ़वाल रियासत की राजधानी हुआ करती थी।
17वीं शताब्दी में इटली से निकोलाओ मानूची नाम का एक यात्री भारत आया था। उसने तत्कालीन मुग़ल इतिहास पर एकाधिक बड़े ग्रंथ भी लिखे। एक जगह उसने कर्णावती और मुग़लों के संघर्ष की कथा को विस्तार से बयान किया है। मुग़ल सेना ने जैसे जैसे शिवालिक की तलहटी से ऊपर पहाड़ों की तरफ चढ़ना शुरू किया, उसका सामना हुआ छापामार गुरिल्ला शैली में आक्रमण करने वाले गढ़वाली सैनिकों से। देवप्रयाग से नीचे शिवालिक की पहाड़ियों के बीच बनी असंख्य चट्टियों में छिपे इन सिपाहियों ने मुग़ल सेना की नाम में दम कर दिया। जब समूची मुग़ल फ़ौज पहाड़ियों के बीच अच्छी तरह से घिर गई, तो रानी कर्णावती के आदेश पर दोनों तरफ के रास्ते बंद कर दिए गए। ऐसी स्थिति आई कि मुग़ल सैनिक न ऊपर जा सकते थे और न नीचे।
निकोलाओ मानूची ने लिखा है, ख़ुद को इस संकट में पाकर सेनापति नजाबत खान ने शांति प्रस्ताव भेजा। लेकिन रानी ने जवाब दिया कि उसका प्रस्ताव देर से आया है। उधर मुग़ल शिविर में रसद की कमी हो गई थी। अफरातफरी का माहौल बनने लगा था चारों तरफ। यह देखकर नजाबत खान ने रानी से इजाज़त मांगी कि वह रास्ते खोलकर उसे अपनी सेना को वापस ले जाने दें। रानी चाहतीं तो एक एक मुग़ल सैनिक को मौत के घाट उतार सकती थीं। लेकिन, उन्होंने ऐसा करने के बजाय मुग़लों को ऐसा सबक सिखाने का फैसला किया, जिसे तारीख में हमेशा याद किया जाए।
रानी कर्णावती ने नजाबत खान को संदेश भिजवाया कि वह चाहे तो अपने सैनिकों को वापस ले जा सकता है। अलबत्ता उसके सैनिकों को अपनी नाक कटवानी होगी। उन्हें जीवनदान देने के बदले रानी उनसे उनकी इज़्ज़त मांग रही थीं। ख़ुद को विकट परिस्थितियों में फंसा पाकर शाहजहां के सैनिकों ने अपनी जान बचाना उचित समझा और आत्मसमर्पण कर दिया। उन्होंने अपने हथियार फेंक दिए और नाक कटवा कर वापसी का रुख किया।
निकोलाओ मानूची ने आगे दर्ज किया है कि इस घटना से शर्मसार होकर बादशाह शाहजहां ने फैसला किया कि वह फिर कभी गढ़वाल पर आक्रमण नहीं करेगा। उधर, नकटे सेनापति नजाबत खान को अपनी पराजय पर इतनी ग्लानि हुई कि उसने रास्ते में ही आत्महत्या कर ली। इस घटना के बाद रानी कर्णावती को नक्कटी रानी यानी दुश्मन की नाक काट लेने वाली रानी कहकर संबोधित किया जाने लगा।
इसके बाद से कर्णावती की शान में अनेक लेखकों, गीतकारों ने बहुत कुछ लिखा। तंत्र मंत्र से संबंधित इलाक़े की एक अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक 'सांवरी ग्रंथ' में उन्हें माता कर्णावती कहा गया है। मुग़ल दरबारों के वृत्तांतों को दर्ज करने वाली पुस्तक 'मआसिर-उल-उमरा' और यूरोपीय इतिहासकार टेवर्नियर के खातों में कर्णावती द्वारा मुग़लों की हेकड़ी निकाल देने के इस किस्से को लिखा गया है।
हिमालय का गजेटियर लिखने वाले विख्यात अंग्रेज़ विद्वान एडविन एटकिंसन ने लिखा है कि रानी कर्णावती गढ़वाल के दूधातोली पर्वत शृंखला की चोटी पर मौजूद बिनसर मंदिर में रहकर अपने दुश्मनों का सामना कर रही थीं। जब उनकी स्थिति कमज़ोर पड़ने लगी, तो अचानक ओलावृष्टि शुरू हो गई। दुश्मन भागने पर मजबूर हो गया। रानी ने इसे मंदिर के आराध्य यानी भगवान शिव के वीणेश्वर अवतार का आशीर्वाद समझा और उस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। निर्माण कार्यों में विशेष रूचि रखने वाली रानी ने केवल राजपुर की नहर ही नहीं बनवाई, देहरादून नगर के अनेक आधुनिक गांव-मोहल्ले भी उन्हीं के बसाए हुए हैं। इनमें अजबपुर, करनपुर, कौलागढ़ और भोगपुर शामिल हैं।
1646 में कर्णावती का बेटा पृथ्वीपत शाह राजा बना और उसने अपनी माता की शान में अनेक ताम्रपत्र बनवाए और भरसक मुग़लों से लड़ता रहा। यह और बात रही कि मुग़लों की नाक काट देने वाली वीर माता के इस बेटे के बेटे यानी पोते मेदिनीशाह ने मुग़लों से समझौता करना बेहतर समझा और वह तत्कालीन बादशाह औरंगज़ेब का चाटुकार बन गया। हो सकता है कि इसी वजह से रानी कर्णावती की वीरता के किस्सों को मुग़लकालीन भारत के इतिहास में वह जगह नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थीं। कभी देहरादून की तरफ जाएं, तो नवादा का रुख करें, जहां उनके बनाए महल के खंडहर आज भी उनकी दास्तान कहते हैं।
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